“गुस्ताखियाँ ” आज़ाद गज़लें संग्रह और कविताएँ
नहीं लिखता मैं गज़लें गाने के लिए
हैं सिर्फ़ ये बहरों को सुनाने के लिए ।
कभी मात्रा मैनें गिराया नहीं कयोंकि
बहरें तो हैं बस लय मिलाने के लिए ।
बहर में लिखनेवालों को मेरा सलाम
लिखता हूँ मैं दिल बहलाने के लिए ।
जिन्हें हो पसंद वो पढ़ें,करें अलोचना
है नापसंद को रास्ता दिखाने के लिए ।
मैंने किसी से कोई राय नहीं मांगा है
न किसी से कहा मुझे अपनाने के लिए ।
अब कितना बकबक करेगा तू अजय
कौन आ रहा है तूझे मनाने के लिए ।
-अजय प्रसाद
साहित्य से मेरा कोई सरोकार नहीं है
शायरी मेरा शौक है व्यापार नहीं है।
ये गज़लें ये कवितायें हैं मेरी बुजदिली
सिवाय कुछ मेरे पास हथियार नहीं है।
आप कहतें हैं कि बेहद उम्दा लिखा है
मुझे लगता है जैसे अभी तैयार नहीं है।
आँखो से होकर कागज़ पे है उतरती
कुछ भी यहाँ बनावटी मेरे यार नहीं है।
है किसी भी विधा का नहीं मुझे इल्म
गज़लें मेरी कोई दिमागी विकार नहीं है
किस कदर घुट रहा हूँ तुम्हें क्या पता
मुझसा कोई शायद इतना लाचार नहीं है
जाने लोग क्यों जलते हैं मुझे पढ़कर
क्या अजय तारीफों का हक़दार नहीं है।
-अजय प्रसाद
ढाक के तीन पात मैं नहीं लिखता
दिल के खयालात मैं नहीं लिखता ।
आँखो से उतर आती है कागज़ पे
सपनों की सौगात मैं नहीं लिखता ।
न आंखे झील सी हैं न चेहरा कंवल
हुस्नोईश्क़ के हालात मैं नहीं लिखता ।
बेवफाई,जुदाई हरज़ाइ या गमेइश्क़
घिसे-पिटे ज़ज्बात मैं नहीं लिखता ।
सुन ले अजय कुछ ज्यादा हो गया
मत कहना दिन-रात मैं नहीं लिखता ।
-अजय प्रसाद
इतनी बेशर्मी अजय कहाँ से लाते हो
जो बेबाक बेबह्र गज़लें लिखे जाते हो।
ज़रा तो लिहाज़ करो बुजुर्ग शायरों का
उनके किये कराए पर पानी फिराते हो।
बड़े बेगैरत ढीठ हो मगर यार तुम भी
बिन बुलाए महफिल में चले आते हो।
कभी शक्ल देख लिया करो आईने में
अव्वल दर्जे के अहमक नज़र आते हो ।
किस गधे ने कह दिया तुम्हें गज़लकार
अपनी तुकबंदी पर बड़े ही इतराते हो ।
तुम क्या जानो क्या है गज़ल कहना
क्यों खामखाँ अपनी खिल्ली उडाते हो।
-अजय प्रसाद
लफ्ज़ रुठ जातें है और शेर चिढ़ जातें हैं
शायरी में जब भी हम हाथ आजमातें हैं ।
गज़लें तो देतीं हैं जी भरकर गालियाँ मुझें
जब भी उन्हें हम आज़ाद कहके बुलातें हैं।
बहरें मुझें कोसती रहतीं हैं अक़सर बेहद
रदीफ और काफ़िया भी बड़े तिलमिलाते हैं।
हो जाता है खफ़ा मतला मुझे देख कर ही
मिसरे अपनी मजबूरियों पर छटपटातें हैं।
मकता बेहद मायुस हो जाता है मन ही मन
अदिबों की नज़रों में हम और गिर जातें हैं
-अजय प्रसाद
खुद की ही बुराई आप क्यों नहीं करते
एक साथ पुण्य औ पाप क्यों नहीं करते ।
नुक्स निकालतें हैं दूसरों की बहुत जल्द
खुद की भी सफाई आप क्यों नहीं करते ।
चलिए माना गल्तियां होती ही इंसानों से
-अजय प्रसाद
जंग लगी हुई ज़मीर का क्या करूँ
दोस्तों हूँ गरीब,अमीर का क्या करूँ ।
जो हक़ में किसी के दुआ ही न करें
उस मतलबी फ़कीर का क्या करूँ ।
तुम्हारे कहने पे आ गया महफिल में
बता इस बेजान शरीर का क्या करूँ।
दहशत में हैं मुझें देख कर ही दर्शक
ऐसे माहौल में तकरीर का क्या करूँ।
गुजर गया है जमाना अजय से मिले
उसकी पुरानी तस्वीर का क्या करूँ ।
-अजय प्रसाद
गर सब बुरे हैं तो अच्छा क्या है
अबे तू इतना सोंचता क्या है।
नुक्स निकालता है हर बात मे
अपने आप को समझता क्या है।
तेरे जैसे कितने आए और गए
तेरी बातों से फ़र्क पड़ता क्या है।
जंग लग गई है ज्म्हुरियत में
इक वोट के सिवा जनता क्या है।
क्या उखाड़ लोगे अजय गजलों से
लिखने के अलावे तुम्हें आता क्या है
-अजय प्रसाद
लफ्ज़ रुठ जातें है और शेर मुहँ चिढ़ाते हैं
शायरी में जब कभी हम हाथ आजमातें हैं ।
गज़लें तो देतीं हैं जी भरकर गालियाँ मुझें
जब भी उन्हें हम आज़ाद कहके बुलातें हैं।
बहरें मुझें कोसती रहतीं हैं अक़सर बेहद
रदीफ और काफ़िया भी बड़े तिलमिलाते हैं।
हो जाता है खफ़ा मतला देख कर ही मुझें
मिसरे अपनी मजबुरीयों पे बस छटपटातें हैं।
मकता मन ही मन बेहद मायुस हो जाता है
अदिबों की नज़रों में हम और गिर जातें हैं
-अजय प्रसाद
खामखाँ = बिना कारण
खुनस =angry
ओबैसी = brave/dominating
**
फिल्मी डेमोक्रेसी है ज़रा संभल के
अच्छी हिप्पोक्रसी है ज़रा संभल के।
पर्दे के पीछे,पर्दे के आगे ,दो पहलू है
सोंच कितनी हितैषी है ज़रा संभल के ।
बस यूँ ही अपना सिक्का चलता रहे,
वाकी तो ऐसी तैसी है ज़रा संभल के ।
बहुत उठाया है फ़ायदा जनता का मगर,
अब नहीं पहले जैसी है ज़रा संभल के।
तू क्योंकर खामखाँ खुनस में है अजय
तू कौन सा ओबैसी है ज़रा संभल के।
-अजय प्रसाद
अपनी मक़बूलियत पर भी ध्यान देतें हैं
इसलिए तो वो विवादित वयान देतें हैं।
कहीं जंग न लगे लफ्जों के तलवार में
उन्हें वो अक़सर मज़हबी म्यान देतें हैं।
जब कभी भी जनता जाग जाती है यारों
उनकों धर्म और पाखंड का ज्ञान देतें हैं ।
भीड़ चाहे हो किसी धर्म या जाति का
भड़कने लिये वक़्त एक समान देतें हैं।
लगता है कि तू भी जान गंवाएगा अजय
तेरे जैसों को वो तोहफ़े में शमशान देतें हैं।
-अजय प्रसाद
क्या! तेरी कोई एक्स गर्लफ्रेंड नहीं है
यानी तू अभी आशिक़ी में ट्रेंड नहीं है।
लैला-मजनू वाला इश्क़ है आउटडेटेड
इसलिए तू किसी का बॉयफ्रेंड नहीं है ।
अभी भी अटका है सिगरेट के साए में
तूने किया कोई रेव पार्टी अटेन्ड नहीं है ।
क्यों कोई स्मार्ट लड़की तुझे भाव देगी
रसूख अमीर बाप पे भी तू डिपेंड नहीं है।
कैसा इमेज बना रक्खा तुने ऑफ़िस में
बॉस ने तुझे किया कभी सस्पेंड नहीं है ।
कुछ नहीं हो सकता है अजय तुम्हारा
सच्चाइयों से करता कभी प्रिटेंड नहीं है।
-अजय प्रसाद
(Pretend) प्रिटेंड =दिखावा
रेव =ड्रग्स
घात लगाकर बैठे हैं इश्तेहार देखिए
बनतें हैं लोग कैसे शिकार देखिए ।
रोज़मर्रा की ज़िंदगी के जंग पर भी
हावी है किस कदर ये बाज़ार देखिए
बस खोखले सजावट हैं चेहरों पर
कितने बेमानी से हुए त्योहार देखिए।
कहीं पे फाकामस्ती,कहीं मौज़मस्ती
करते हैं इमोशनल अत्याचार देखिए ।
खुदा को क्यों खामखाँ है याद करता
यहाँ भी हैं कई खिदमतगार देखिए
-अजय प्रसाद
सदियों से ही उचित न्याय की तलाश में हूँ
दलितों,पीड़ितों औ शोषित के लिबास में हूँ ।
ज़िक्र मेरी भला कोई करे क्योंकर ग्रंथो में
कहाँ नज़रो के,वाल्मिकी या वेद व्यास में हूँ।
हर दौर ही दगा दे गई यारों दिलासा दे कर
बस ज़रुरत के मुताबिक उनके पास में हूँ ।
रोज़ लड़ता हूँ लड़खड़ाकर जंग ज़िंदगी से
मुसीबतों के महफ़ूज साया-ए-उदास में हूँ ।
कभी तो अहमियत मिलेगी मेरी गज़लों को
अजय उस महफिल-ए-ग़ज़ल की तलाश में हूँ
-अजय प्रसाद
“अपाहीज़ ”
*
खुद को
बड़ा ही
असहज
असहाय
अपाहिज
सा पाता हूं
जब
अन्याय के खिलाफ
लिखने के
अलावे
कुछ
नही
कर पाता हूँ।
-अजय प्रसाद
आई सी यू में है समाज क्या करें
सूझता नहीं है इलाज़ क्या करें ।
नये दौर के बड़े स्मार्ट बच्चें हैं
मानते नहीं रिवाज़ क्या करें ।
अब गानों में गालियाँ हैं ज़रुरी
फ़िर बेबज़ह रियाज़ क्या करें।
खोखले ज़ज्बात हैं बड़े ज़र्खेज़
खुलूस भरें दिलसाज़ क्या करें ।
तय कर दिया है अंजाम रब ने
जिंदगी बता आगाज़ क्या करें।
इश्क़ में वो मज़ा ही नहीं रहा
भला आशिक मिज़ाज क्या करें।
-अजय प्रसाद
वाहीयात बातों से आपको हँसाते हैं
आइये कपिल शर्मा का शो दिखातें हैं ।
फुहड़ता कितना हो गया है फायदेमंद
लोग अब बेशरमी से फ़ायदा उठाते हैं ।
उधार की आधुनिकता के अधर में लटके
देखिए कैसे हम खुद की खिल्ली उड़ाते हैं।
सोंच में पड़ी है सभ्यता-संस्कृति,सादगी
और हम निर्लज्ज़्ता से माखौल उड़ाते हैं।
अंतरात्मा दुखी है इंसानियत के पतन पे
जबकी हम जहालत का भी जश्न मनाते हैं।
क्या जाता है तुम्हारे बाप का अजय,बताओ
कौन सा वो तुम्हारी कमाई दौलत लुटाते हैं।
-अजय प्रसाद
रोया रात भर माहताब क्यों
भीगा हुआ था गुलाब क्यों ।
नींद से कोई दुश्मनी तो न थी
खफ़ा हो गए मेरे ख्वाब क्यों।
सवाल तुम्हारे तिलमिलाते हैं
जबरन मांगते हो जवाब क्यों ।
देख कर ठिठके महफिल में
भूल गये हो ,तो आदाब क्यों।
इतनी जल्दी थी जुदा होने की
मिलने आये थे फिर जनाब क्यों ।
ज़िंदा रहने की देते हो दुआएं
ज़िंदगी कर दिया अज़ाब क्यों ।
-अजय प्रसाद
दिल में रहते थे वो किराए के मकां जैसे
भला मुझ को फ़िर समझते अपना कैसे ।
इल्म ही नहीं क्यों बिक गए मेहबूब मेरे
इश्क़ में हुआ इस्तेमाल मेरा दुकां जैसे ।
राख कर दिया मुझे उसने अपने जलवो से
जला के कोयले को निकला हो धुआँ जैसे।
उसकी नफ़रतों का भी मैं हो गया कायल
पता नहीं फ़िसल गयी थी मेरी जबां कैसे ।
न आग,न धुआँ और न कोई चराग ही है
फ़िर भला जल गया मेरा ये आशियां कैसे।
खल गई ज़माने को बेबाक गज़लें मेरी
मुझको रहने देता वो अच्छा भला कैसे
-अजय प्रसाद
वो मुझको खतरों से आगाह करता है
क्या सचमुच इतनी परवाह करता है।
लह्ज़ा तो रहता है धमकियों से भरा
क्यों मेरी गज़लों पे वाह वाह करता है ।
मैनें कब कहा कि इन्क़लाब लाऊंगा
फ़िर क्यों इन्तज़ाम खामखाह करता है।
शायद बेहद थी मुहब्बत मुझसे पहले
इसलिए अब नफरत बेपनाह करता है।
जाओ अजय तुम्हारी हैसियत है क्या
कौन खुद को फिजूल तबाह करता है ।
-अजय प्रसाद
गिरते हुए मनोरंजन का एहसास करातें हैं
चलिए न,आपको शो बिग बॉस दिखातें हैं।
गालियाँ,गोलियाँ,अश्लीलता औ रंगरलियाँ
देखिये कैसे वेब सीरीज़ में परोसे जातें हैं ।
पहले देखतें थे हम पूरे परिवार के साथ
मगर अब ऐसे धारावाहिक कहाँ आते हैं ।
क्या तरक्की होना इसी को कहते हैं यारों
जहाँ बच्चे घर के बुजुर्गो पर ही चिल्लाते हैं।
तुम भी अजय किस पचड़े में हो पड़े रहते
आज कल यही चीज़े तो फ़ैशन कहलाते हैं।
-अजय प्रसाद
किस दौर में जी रहें हैं ये क्या हो रहा है
अवाम बेफ़िक्र है और सियासत रो रहा है।
मिलकियत जिनकी,हैं मातम वही मनाते
और वक्त बहती गंगा में हाथ धो रहा है।
मुश्किलें तो मशगूल हैं महफिलें ज़माने में
मसीहा मूंद कर आँखे चुपचाप सो रहा है।
गज़ब अंदाज़ है गरीबी में जीने वालोँ का
होने देता है उसके साथ,जो कुछ हो रहा है ।
तू क्यों अजय इतनी बेगारी करता रहता है
बंज़र गजलों में हालात के बीज बो रहा है ।
-अजय प्रसाद
गज़ल तो वाकई आपकी बेहद अच्छी है
पर क्या तस्वीर में लड़की होना ज़रूरी है।
जिनकी तारीफ़ में आपने कही है गज़ल
बेशक़ हर लफ्ज़ में ही वो झलकती है।
गज़ब का है अंदाज़ इज़्ज़त अफजाई का
आपकी नज़र और सोंच कितनी पारखी है ।
किसी की आबरू को यूँ सरेआम रखना
क्या गज़लगोई के लिए मायने रखती है।
बिना किसी के इज़ाजत के लिए बगैर ही
उसकी तस्वीर पोस्ट करना तो ज़्यादती है।
गज़लें हों गर बेहद वजनदार औ मानेखेज
अजय समझो वही उसकी खूबसूरती है
-अजय प्रसाद
“दुशासन”
*
देखते हुए
टीवी
पर
समाचार
पूछा
जब
बेटी
ने
क्या है
सरकार,
पुलिस
और
प्रशासन ?
मैनें
कहा मोडर्न
दुशासन !
-अजय प्रसाद
कार्यक्रम विकास का जारी है
और जनता इसकी आभारी है।
रास्तों में गड्ढे,हैं जुओं के अड्डे
भूख ,गरीबी और लाचारी है।
आशंकित रहतीं हैं बेटियाँ यहाँ
महफ़ूज मज़े में बलात्कारी है ।
घुट रहा है दम दरियादिली का
खुशहाल स्वार्थी व भ्रष्टाचारी है ।
खुशहाल हैं बेशक़ फिरकापरस्त
जबकि बदहाली में इमानदारी है।
-अजय प्रसाद
चांद मुझ पर झल्ला गया
साथ छत पे मैं जो आ गया ।
वो ज़ुल्फें क्या सहेज दी मैनें
बादलों को गुस्सा आ गया ।
शाम मुहँ फुलाकर बैठी है
उनसे मिलकर जो आगया ।
तारे तिलमिला कर रह गए
मेरे चेह्रे पे नूर जो आ गया ।
फूल भी सारे फफक पड़े
काटों को जब मैं भा गया ।
महफिल मुश्किल में आगई
अजय तू जब भी छा गया ।
-अजय प्रसाद
वो अपनी परछाई से डरता है
मतलब वो सच्चाई से डरता है ।
बरतता है वो एहतियात बेहद
क्योंकि जग हँसाई से डरता है ।
इल्म है उसे रास्तों के खतरों का
इसलिए रहनुमाई से डरता है।
हश्र देखा है उसने मसीहा का
इसलिए तो मसीहाई से डरता है।
वो क्या करेगा भला किसी का
जो औरों की भलाई से डरता है।
आ तो गया हूँ बिन बुलाए यहाँ
दिल है कि पज़िराई से डरता है।
तुझे तो आदत हो गई है अजय
तू क्यों अपनी बुराई से डरता है।
-अजय प्रसाद
मुहब्बत की मुश्किलें और कितना बढ़ाएगा
तारीफों के लिए चार चांद कहाँ से लगाएगा ।
अपने पैरों पे तो ठिक से अभी खड़ा हुआ नहीं
महबूबा के लिए चांद तारे कैसे तोड़ लाएगा ।
बात करता है जो तू ज़माने से टकराने की
अबे हौसला तू भला क्या इतना कर पाएगा।
एक ज़िंदगी में रिश्ते संभाले नहीं जाते यहाँ
सातों जनम तू क्या खाक साथ निभाएगा।
छोड़ दे अजय कसमे,वादे प्यार वफ़ा की बातें
आंखे मूंदते ही तू पूरी दुनिया को भूल जाएगा।
-अजय प्रसाद
चिंता है उन्हें GDP गिर जाने का
मिल गया मुद्दा दिल बहलाने का ।
सत्ता और विपक्ष दोनों हैं गिरे हुए
मगर चिंता है बस कुर्सी उठाने का ।
एक से एक हैं आर्थिक विश्लेषक
काम ,न्यूज़ चैनलों पे चिल्लाने का ।
कोई बताता है आकड़े अकड़ कर
कोई कहता वक्त नहीं घबड़ाने का ।
उलझन में है जनता जनार्दन यहाँ
पता नहीं कब अच्छे दिन आने का ।
करोगे ज्यादा बकबक अजय तुम
ठेका लिया है तुमने देश चलाने का।
-अजय प्रसाद
कोई पढ़े
या न पढ़े
किसी को पसंद
हो या न हो मेरी रचना
कोई तारीफ़ करे
या तनकीद ही करे।
लाइक्स या कमेंट्स की
मैं उम्मीद नहीं करता क्योंकि
सोशल मीडिया के पटल पर ये
लेनदेन का बड़ा करोबार है ।
पर मैं तो लिखूंगा
बिना किसी परवाह के
तारीफ़ और वाह!वाह!के ।
मगर अपने
अनोखे,बेवाकअंदाज़ में।
मुझ्रे तो है लिखना
क्योंकि अलग है दिखना।
-अजय प्रसाद
किसी ने
लिखी नहीं
कभी कोई कविता
न कहा कोई गज़ल
न तारीफों के पुल बांधे
किसी ने मेरी सुन्दरता पे ।
न मेरे मुरझाने पर कोई दुख
जताया गया किसी भी विधा में।
क्योंकि मैं हमेशा-हमेशा रहा हूँ
हासिये पर,साहित्य और रचनाकारों के लिए।
जबकी हक़ीक़त बिल्कुल परे है अप्रत्यक्ष रूप से।
लेकिन ये दुनिया वाले बाहरी सुन्दरता से अधिक
प्रबभावित होतें हैं और मन की सुन्दरता
को अहमियत कम देतें हैं।
इसलिए तो मैं अपनी
हैसियत की पकड़ हूँ
क्योंकि मैं
जड़ हूँ।
आईये आप को ले चलता हूँ मेरे गरीब खाने पे
जहाँ शायद मैं भी नहीं गया हूँ एक जमाने से ।
आजकल मेरा शरीर ही रहता है वहाँ सिमट कर
हालांकि गुजारी है मैंने बचपन उसी ठिकाने पे।
अब तो याद भी नहीं है मुझे कि मैं कब रोया था
जब पिता जी ने सुला दिया था मुझे सिरहाने में।
हाँ मगर भुला नहीं हूँ आज तलक भी वो प्यार
जिसे लूटाया करती थी माँ मुझको खिलाने में ।
उस अभाव ग्रस्त जीवन में भी हम कितने मस्त थे
मिलजुलकर रहते थे खुशी से,बैठते थे नौबतखाने ।
आज हर ऐशो-आराम के साथ वीबी-बच्चे हैं वहीं
बस कोई जाया नहीं करता वक्त अब बिताने में ।
-अजय प्रसाद
आत्मनिर्भरता
***
अच्छा है,
बच्चे काम
पर जा रहे हैं
अपना भविष्य
खुद बना रहे हैं ।
कुछ सड़क किनारे
बने ढाबों पर
जुठे बर्तन मांज कर,
कुछ कचरे चुन कर
कुछ मजदूरी कर के
कुछ चाय के दुकानों में
ग्लास धो कर और कुछ
फटेहाल भीख मांग कर ।
उनके चेहरों पर है
गजब का आत्म विश्वास ,
क्योंकि उन्हें है एहसास
अपने पैरों पर खड़े होने का।
बेरहम वर्तमान जीवन से संघर्ष का।
देश के अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का।
और सबसे बड़ी बात अपने आप आत्मनिर्भर होने का।
-अजय प्रसाद
आइनों
तुमने तो
ज़रुर सहेज
कर रक्खा होगा
मेरे उम्र के हर
एक पड़ाव को।
रोज़
तुम्हें देख्र कर ही
तो मैंने खुद को
सँवारा है ज़िंदगी में।
-अजय प्रसाद
रिश्तों
में
आने
लगती है
दरार,और
उबाऊ हो
जाता
है
मनुहार ,
जबरन
थोपा
जाता
है
जब
प्यार
-अजय प्रसाद
क्योंकि
मैं पुरुष हूँ
तो
मुझे
हक़ है
स्त्रियों पे
लांछन लगाने का
उन्हें मारने का
उन्हें सताने का
उन्हें हथियाने का
उनके शोषण का
और वो सब करने का
जिससे
उन्हें
नीचा दिखा सकूँ।
कारण
है कि
उनके जैसा
कोई महान
कृत्य
मैं
नहीं कर सकता ।
कोई सुन्दरता
ही नहीं
मुझ में।
मेरे
सारे आविष्कार
मुझे चिढातें हैं।
उनके निस्वार्थ
प्रेम और समर्पण
देखकर ।
तुलना
उनकी की जाती है
धरती,फूल,चांद से
जो मुझे खलतें हैं।
इसलिए तो हम उनसे जलतें हैं
क्योंकि हम उन्हीं के कोंख में पलते हैं।
-अजय प्रसाद
क्या
है
पाप
समझतें
भी हैं आप ?
किसी बच्चे को
जन्म देना और
कहलवाना
खुद को
माँ या बाप !
-अजय प्रसाद
हम आज़ाद हैं
हर साल
15अगस्त के दिन
को यादगार बनाने के लिए
स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए
जलेबियाँ खाने के लिए
बधाइयाँ और शुभकामनाएं
एक दूसरे को देने के लिए
शहीदों पर माल्यार्पण के लिए
स्वतंत्रता सेनानीयों को याद करने के लिए
महापुरुषों के प्रतिमाओं पे फूल चढ़ाने के लिए
राश्ट्रीय गीत और राष्ट्रगान गाने के लिए
देश भर में तिरंगा फहराने के लिए
लंबे-लंबे भाषण देने के लिए
आज़ादी की अहमियत बताने के लिए
और फ़िर अगले ही दिन
सब कुछ भूल
जाने के लिए
-अजय प्रसाद
‘ऐसा कोइ सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं ‘
हल जो कर दे सब मसले वो हमारा नेता नहीं।
जब मसले ही नहीं होंगे तो पुछेगी जनता क्यों
वो सब ‘वो’ करे क्यों जो आज तक हुआ नहीं ।
हाँ करे वायदे सिर्फ़ और सिर्फ़ भुलाने के लिए
और हारने पे कहे,आपने तो हमें जिताया नहीं।
साम,दाम ,दंड ,भेद की नीति में रहे वो निपुण
ताकि कभी भी जाए उसके हाथों से सत्ता नहीं।
हो सत्ताधारी या फिर लीडर विपक्षी पार्टी का
मगर करे कभी कोई भी काम अवाम का नहीं।
देखो अजय तुम्हारी गज़लें हैं बेहद बचकानी
इसलिए तो किसी पत्रिका में कभी छ्पा नहीं ।
-अजय प्रसाद
कुछ लोगों ने एक मंदिर बचा लिया
हाँ आस-पास जो था सब जला दिया ।
उनकी नेक नियति को सलाम है मेरा
भाईचारे का इक नमूना दिखा दिया ।
अब तो आदत सी हो गई है मुल्क की
जब भी मौका मिला दंगा करा दिया ।
सियासत संभल कर चाल चल रही है
बस इसी सलीके से चेक भुना लिया ।
पता नहीं कब तक अक़्ल आएगी हमें
विद्वता ने हमे और असभ्य बना दिया।
लगता नहीं है कभी वो सुधरेंगें दोस्तों
जहालत अजय जिन्होनें अपना लिया
-अजय प्रसाद
चलिये अब हम सब कुछ नया करें
जो भी हैं बुरे उन्हें ही अच्छा कहें।
जब जेहन में जहालत भरी हो तो
क्या फर्क पड़ता है किसे क्या कहें ।
तोड़तें हैं चौराहों पर लगी प्रतिमाएं
और महापुरुषोँ को भला बुरा कहें।
भूल कर सारी इंसानियत की हदें
ज़ुल्म हैवानियत की बढ़ा चढ़ा कहें।
घोट देँ सच का गला अपने हाथों से
फ़िर लाश बनके साथ चुपचाप रहें ।
तू अजय फिर क्यों सोंच में पड़ गया
अपने कलम से कह दो अपनी हद में रहें
-अजय प्रसाद
**दिशा निर्देश **
**
जब मैं मर
जाऊँ
तो
कोई
मातमपुर्सी
नहीं करना।
कोई अर्थी नहीं सजाना।
कोई भी आसूँ मत बहाना ।
रोनी सूरत बिल्कुल न बनना ।
मेरे
परिवार,हितैषियों और सभी रिशतेदारों को
भी यही बातें समझाना।
क्योंकि
मैं ज़िंदा था, हूँ और रहूँगा
ये बताने के लिए
मेरी लाश
को घसीटकर शमशान
तक ले जाना
फ़िर क्या है करना
क्या
ज़रुरी
है
बताना ।
-अजय प्रसाद
बाम=छत
सोशल डिस्टेंसींग के साथ प्यार कर रहे हैं
अपने अपने बाम से दोनों इज़हार कर रहे हैं ।
दो गज़ की दूरी जब से हो गई है ज़रुरी यारों
पार्क औ नदी किनारे जाने से इंकार कर रहे हैं ।
मास्क जो लगाने को मजबुर करती है हुकूमत
हेलमेट पहनके एक दूजे का दीदार कर रहे हैं ।
कीड़े पड़े कमबख्त इस मुआ कोरोना को
महिनों से गले लगाने का इन्तजार कर रहे हैं।
तू क्यों भला इतना खफा है अजय ज़रा बता
क्या वे लोग तुम्हें इसका जिम्मेदार कर रहे हैं ।
-अजय प्रसाद
भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ भयंकर डेमोक्रेसी है
यहाँ मोदी,ममता,राहुल,मुलायम, आज़म और ओबैसी है ।
सपा,बसपा,बीजेपी,सीपीएम,आप,टिएमसी,जेडीयू हैं नये
पर सबसे लंबे समय तक राज़ करने वाला तो कांग्रेसी है।
मक़सद तो सबका एक ही है बस तरीका अलग-अलग है
हर नेता खुद को बताता सिर्फ़ वही जनता का हितैषी है।
बदबूदार सियासत और स्वार्थ सिद्धि के लिए तत्पर नेता
जनता के लिए,जनता के द्वारा चुने हरएक भ्रष्ट,स्वदेशी है ।
लोकतंत्र के चारो स्तंभ अब हो चुके हैं चारो खाने चित्त
ढो रहे हैं हम सब इस प्रजातंत्र को जैसे कोई मृत मवेशी है ।
-अजय प्रसाद
पेश है ताज़ा गज़ल अहबाब की नज़र
जी है तो बकवास मगर दुरुस्त है बहर ।
हाँ कमजोर बेकार है मतला और मकता
मगर रदीफ औ कफ़िया है बड़ा पुर खतर ।
आप क्या जानो कितनी की है मशक्कत
कैसे संभाला है वज़न मात्राओं ने गिरकर।
तब तो आपको वाह!वाह करनी ही पड़ेगी
जब गाएंगे इसे श्री बेसुध बेसुरे “बेखबर ”
छोड़िये न अजय की औकात ही क्या है
एक भी गज़ल कहदे ज़रा बहर में लाकर।
-अजय प्रसाद
सादा जीवन,है उच्च विचार
भूख गरीबी और बेरोजगार।
हम दल बदल में हैं माहिर
चाहे भाड़ में जाए सरकार ।
जिसकी लाठी उसकी भैंस
जीवित रहने का है आधार।
काविल करते खिदमत यहाँ
चापलूस बने हैं ओहदेदार।
बंद करके आँखें चुपचाप जी
गर है अजय बेहद समझदार ।
-अजय प्रसाद
जब भी
कुछ खरीदना
चाहता हूँ खुद के लिए
तो सस्ती से सस्ती चीज़ें भी
हो जाती हैं महंगी कयोंकि मुझे
लगता है ये फिजूल खर्ची।
मगर महंगी चीज़ें भी
लगतीं है सस्ती
जब बीवी-बच्चों के लिए
खरीदता हूँ कारण उस वक्त
मुझे लगती है ये मेरी खुशी।
-अजय प्रसाद
बड़े ही
अच्छे लगते हैं
जुआ खेलते हुए बच्चे
कुछ चुनिंदा जगहों पर ,
आपने भी
जरूर
देखा होगा।
कहीं
मैले कुचैले अधनंगे
कहीं
कुछ रईस जादे
कहीं
कुछ भिखमंगे ।
फ़र्क खेलने में नहीं है
देखने में है
एक
को देखते हैं
इज़्ज़त से ,
और दूसरे को नफरत से ।
-अजय प्रसाद
आईये न हम सब HINDI दिवस मनाएंगे
बस पहले एक-एक इंगलिश पैग लगाएंगे।
सूट-बूट हैट और कोट पहनकर हम आज
माइक पे महिमा हिंदि की,अंग्रेजी में गाएंगे।
भाई साहब दो चार दिन की ही तो बात है
फिर तो नेक्स्ट ईयर ही न बुलाए जाएंगे ।
बस फॉर्मलिटी पूरी हो जाए हिंदि दिवस की
फ़िर कोई अच्छी इंग्लिश फ़िल्म दिखाएंगे।
यू नो वेरी वेल अजय भाट ईज़ यौर प्रॉब्लम
हर मामले में आप अपनी टांग अड़ाएंगे ।
-अजय prasad
आंखों में सब मंज़र चुभते हैं
हालात के ये खंजर चुभते हैं ।
लाख खो जाऊँ मैं रंगीनियों में
खोखले से ये समंदर चुभते हैं।
-अजय प्रसाद
तरस रही हैं तरक्कीयाँ कई गांवों में जाने को
कोई मददगार ही नहीं उन्हें रास्ता दिखाने को ।
वक्त के साथ-साथ बदल गई है रहनूमाई भी
अब तो सियासत करते हैं लोग सितम ढाने को ।
-अजय प्रसाद
हैसियत क्या हो गई है रिसालों की ,न पूछ
हालत आजकल के लिखनेवालों की,न पूछ ।
कल तक जो ज़ुल्म ढाते रहे सम्पादक बनके
हश्र क्या हुआ है आज,उन सालों की न पूछ ।
-अजय प्रसाद
न संघी,न भाजपाई और ना मैं कांग्रेसी हूँ
बस सहज-सरल शालीन, शुद्ध स्वदेशी हूँ ।
न सपा,न ब स पा,न सी पी एम,न रा ज द
न जदयु,न आप,न NCP,ना टी एम सी हूँ।
न किसी के खिलाफ़,न हूँ किसी के साथ
न सत्ताधारी दल का और न मैं विपक्षी हूँ।
मेरी रचनाएँ पढ़ के न पालें गलतफहमियां
मैं इस मुल्क में रहनेवाला कवि मामूली हूँ ।
ज्यादा खुद को पारिभाषित न करें अजय
बस कहदें इतना कि “मैं भी एक आदमी हूँ ”
-अजय प्रसाद
मिल जाए अगर फुरसत’ श्री राम’से
गौर फ़रमाईएगा हुजूर ज़रा अवाम पे।
जुगाड़ ज़िंदा रहने का कर दें हमारा
फ़िर मंदिर भी बनाईयेगा धूमधाम से।
भला कौन है जो रोकेगा आपको यहाँ
बस रोजी-हो तो हम भी जाएं काम पे।
हम भी कर सकें दर्शन राम लला के
घर परिवार भी चला सकें आराम से ।
मंदिर-मस्जिद की निर्माण से हमें क्या
कहाँ शिकायत है अपने हुक्काम से।
आज भी अजय तुम बाज नहीं आए
क्या तुम्हें उकसाया गया है इनाम से।
-अजय प्रसाद
जी ये हैं मुल्क के मशहूर’शायर रसिक मिज़ाज मिर्जापुरी’
ज़िंदगी भर जिनके लिए बस शायरी ही रही बेहद ज़रुरी ।
वतन के वास्ते कर दिया बर्बाद इन्होंने अपनी जवानी को
इल्म इन्हें था पहले ही आशिक़ी है इनकी बड़ी मजबुरी ।
मुहँ मारते फिरते रहे जनाब दिन रात महबूबा के मुहल्ले में
जिक्र माशुका की करते रहे गज़लों में,की प्रशंशा भुरभुरी ।
तड़प,कसक,लहक,महक,लचक और न जाने क्या क्या
गर पढ़े और सुने इनकी शायरी को तो लगेगी झुरझुरी ।
दिन-दुनिया से बेखबर होकर ही सेवा करी है अदब की
हाँ अब्बा इनके गुजर गए करते हुए दूसरों की जी हुजूरी।
-अजय प्रसाद
इश्क़ हमने किया उनसे ,कोरोनाइज़र की तरह
धो डाला उसके भाईयों ने सेनिटाइज़र की तरह
यकीन मानिये हुजूर हमने उफ़ तक नहीं किया
दर्द मेरे इश्क़ में कामआए फर्टिलाइजर की तरह
देख कर उनकी मुस्कराहट खिल गया दिल मेरा
खुश होगया मैं कामयाब एड्भरटाईज़र की तरह
अब तो तय है रकीबों का क्वारअर्न्टाईन होना
उनकी शादी में हूँ मैं इवेंटओर्गनाईजर की तरह
बड़े ही बेरहम दिल के इन्सान हो अजय तुम भी
ढा रहे हो ज़ुल्म ज़िंदगी पर वुमेनाईजर की तरह
-अजय प्रसाद
अच्छा ! तो आप एक पत्रकार हैं
जरा ये भी बताएं किस प्रकार हैं ।
गर सत्ताधारी के पक्ष में लिखतें हैं
तब आप एक शातिर चाटुकार हैं।
अगर सत्ता के खिलाफ़ लिखतें हैं
फ़िर आप सियासत के शिकार हैं ।
अगर जनता के पक्ष में लिखतें हैं
तो आप एक बुद्धिजीवी मक्कार हैं ।
गर सिर्फ़ संतुष्टि के लिए लिखतें हैं
तो आप बिलकुल जैसे सरकार हैं ।
गर आप हक़ दिलाने को लिखते हैं
फिर तो आप खुद ही समझदार हैं ।
तो अजय के बारे में क्या खयाल है
अजी वो तो वाहियात गज़लकार हैं
-अजय प्रसाद
‘ऐसा कोइ सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं ‘
हल जो कर दे सब मसले वो हमारा नेता नहीं।
जब मसले ही नहीं होंगे तो पुछेगी जनता क्यों
वो सब ‘वो’ करे क्यों जो आज तक हुआ नहीं ।
हाँ करे वायदे सिर्फ़ और सिर्फ़ भुलाने के लिए
और हारने पे कहे,आपने तो हमें जिताया नहीं।
साम,दाम ,दंड ,भेद की नीति में रहे वो निपुण
ताकि कभी भी जाए उसके हाथों से सत्ता नहीं।
हो सत्ताधारी या फिर लीडर विपक्षी पार्टी का
मगर करे कभी कोई भी काम जनता का नहीं।
देखो अजय तुम्हारी गज़लें हैं बेहद बचकानी
इसलिए तो किसी पत्रिका में कभी छ्पा नहीं ।
-अजय प्रसाद
आईये आप को ले चलता हूँ मेरे गरीब खाने पे
जहाँ शायद मैं भी नहीं गया हूँ एक जमाने से ।
आजकल मेरा शरीर ही रहता है वहाँ सिमट कर
हालांकि गुजारी है मैंने बचपन उसी ठिकाने पे।
अब तो याद भी नहीं है मुझे कि मैं कब रोया था
जब पिता जी ने सुला दिया था मुझे सिरहाने में।
हाँ मगर भुला नहीं हूँ आज तलक भी वो प्यार
जिसे लूटाया करती थी माँ मुझको खिलाने में ।
उस अभाव ग्रस्त जीवन में भी हम कितने मस्त थे
मिलजुलकर रहते थे खुशी से,बैठते थे नौबतखाने ।
आज हर ऐशो-आराम के साथ वीबी-बच्चे हैं वहीं
बस कोई जाया नहीं करता वक्त अब बिताने में ।
-अजय प्रसाद
मिल जाए अगर फुरसत’ श्री राम’से
गौर फ़रमाईएगा हुजूर ज़रा अवाम पे।
जुगाड़ ज़िंदा रहने का कर दें हमारा
फ़िर मंदिर भी बनाईयेगा धूमधाम से।
भला कौन है जो रोकेगा आपको यहाँ
बस रोजी-हो तो हम भी जाएं काम पे।
हम भी कर सकें दर्शन राम लला के
घर परिवार भी चला सकें आराम से ।
मंदिर-मस्जिद की निर्माण से हमें क्या
कहाँ शिकायत है अपने हुक्काम से।
आज भी अजय तुम बाज नहीं आए
क्या तुम्हें उकसाया गया है इनाम से।
-अजय प्रसाद
हावी किस कदर आज बाज़ार है
कितना डिजिटल हुआ त्योहार है ।
करतें हैं इमोशनल ब्लैकमेल कैसे
देखिए आजकल जो इश्तेहार है ।
दो दुनिया है टीवी के कलाकारों के
इक है ज़ाहिर दुसरा दर किनार है।
गिरफ्त में चकाचोंध केआते हैं हम
इस तरह करता ये हमारा शिकार है।
जाओ अजय तुम भी कुछ ले लो
तुम्हारा भी तो यहाँ घर परिवार है ।
-अजय प्रसाद
हूँ मैं तुलसी, कबीर, निराला या पंत नहीं
मीर,मोमिन ,गालिब दाग या दुष्यंत नही।
कहता हूँ गज़लें बेवाक हर मुद्दे पर बेबहर
शायर तो मै हूँ ,मगर मशहूर अत्यंत नही ।
कब्र,चिता,शमशानओअर्थी,हमसे कहते हैं
इस धरा पर रहा है जिंदा कोई अनंत नही ।
मौसम,मिज़ाज,वक़्त और हालात ,सुन यार
रह सकता है बुरा मगर जीवन पर्यन्त नही ।
बचपन से ही जो उठाते है बोझ जवानी का
पतझड़ उनके होतें हैं कदरदान,बसंत नही ।
जान गई है किसी मजदूर की ईंट ढोते- ढोते
न मीडिया ,न बहस,मुद्दा था ही ज्वलंत नही ।
-अजय प्रसाद
न संघी,न भाजपाई और ना मैं कांग्रेसी हूँ
बस सहज-सरल शालीन, शुद्ध स्वदेशी हूँ ।
न सपा,न ब स पा,न सी पी एम,न रा ज द
न जदयु,न आप,न NCP,ना टी एम सी हूँ।
न किसी के खिलाफ़,न हूँ किसी के साथ
न सत्ताधारी दल का और न मैं विपक्षी हूँ।
मेरी रचनाएँ पढ़ के न पालें गलतफहमियां
मैं इस मुल्क में रहनेवाला कवि मामूली हूँ ।
ज्यादा खुद को पारिभाषित न करें अजय
बस कहदें इतना कि “मैं भी एक आदमी हूँ ”
-अजय प्रसाद
जी लेंगे झोंपड़ी में हुजूर चिंता न करें
यही है गरीबी का दस्तूर चिंता न करें ।
आप तो फ़िक्र करें अमीरों के लिए
हम लोग तो हैं मज़दूर चिंता न करें ।
मतदान से पहले आप ये दान दे रहे हैं
आप भी हैं खुद मज़बूर चिंता न करें ।
शिकवा क्या करना जब फ़ायदा नहीं
हम तो हैं ही एक फ़ितूर चिंता न करें ।
तुम भी न अजय उटपटांग बकते हो
जाने कब आएगा शऊर चिंता न करें ।
-अजय प्रसाद
देखता हूँ भूखा हैऔर नंगा है
मगर हाथों में लिये तिरंगा है ।
हक़ उसे है जश्ने-आज़ादी का
क्या हुआ अगर भिखमंगा है ।
देशभक्ति उसकी रग रग में है
जैसे वो जल पवित्र गंगा है ।
फ़िक्र वो भी करता है देश की
लेता रोज़ वो गरीबी से पंगा है ।
मैला है तन से मन में मैल नहीं
यारों जैसे कठौती में गंगा है ।
-अजय प्रसाद
मेरी मंजिल अलग,मेरा रास्ता अलग है
मेरी कश्ती अलग ,मेरा नाखुदा अलग है ।
मेरे साथ चलने वाले ज़रा सोंच ले फ़िर से
मेरा हमसफर अलग,मेरा कारवां अलग है
-अजय प्रसाद
आज़ाद गज़लें
आज़ाद गज़ल जिसमे बहर की पाबंदियां नहीं होती ।
-अजय प्रसाद
ढाक के तीन पात मैं नहीं लिखता
दिल के खयालात मैं नहीं लिखता ।
आँखो से उतर आती है कागज़ पे
सपनों की सौगात मैं नहीं लिखता ।
न आंखे झील सी हैं न चेहरा कंवल
हुस्न के हालात मैं नहीं लिखता ।
बेवफाई,जुदाई हरज़ाइ या गमेइश्क़
घिसे-पिटे ज़ज्बात मैं नहीं लिखता ।
सुन ले अजय कुछ ज्यादा हो गया
मत कहना दिन रात नहीं लिखता ।
-अजय प्रसाद
‘वो’ मुझको इमोशनली ब्लैक मेल करती है
आशिक़ी के ट्रेन को पटरी से डी रेल करती है ।
लाख पढ़ता हूँ मैं उसकी आँखों की किताब
इम्तिहाँ-ए-इश्क़ में अक़सर फ़ेल करती है ।
सारे नुस्खे मेरे धरे के धरे रह जाते हैं दोस्तों
जब भी मिलती है,कोल्हू का बैल करती है ।
लिखता तो मैं हूँ गज़लें उसकी तारीफ़ में
वो उन्हें अपने नाम के साथ सेल करती है ।
मैनें भी अजय तय कर है लिया अब से
खेलुंगा उससे मैं भी जैसे वो खेल करती है।
-अजय प्रसाद
कोई तो है मेरे अन्दर जो मुझे उक्सा रहा है
अनाप -शनाप बेबह्र गज़लें लिखवा रहा है ।
चाहता मैं भी हूँ कि लिक्खूं अदब कायदे से
पर वो जेहन को मेरे खिलाफ भड़का रहा है ।
पता नहीं क्या बिगाड़ा है मैनें उसका यारों
पुरखों की मेहनत को मिट्टी में मिला रहा है।
बेहद शर्मिन्दा हूँ मैं अपनी इस लाचारगी पर
और वो अपनी कामयाबी पर मुस्कुरा रहा है ।
बेवकूफ समझा है क्या तूने अजय लोगों को
अरे ये क्यों नहीं कहते तुम्हें भी मजा आ रहा है ।
-अजय प्रसाद
आपदाओं को हम भी अवसर में ढाल रहें हैं
इसलिए तो पर्मानेन्ट हल,नहीं निकाल रहें हैं।
आपदाएं ही तो हमारी आमदनी का जरिया है
राहत की राशि अपनी तिजोरियों में डाल रहें हैं ।
हमे तो रहता है इन्तजार आपदाओं का हमेशा
टिका कर सियासत इन पर सालों साल रहे हैं।
जी हाँ नेतागीरी हमारी चमकी है इनके दम पर
वर्षो मददगार बाढ़,सुखाड़ और अकाल रहे हैं ।
फ़िर आगए तुम अजय रोना रोने सच्चाई का
कहा तो है दो चार रोटियाँ तुम्हें भी डाल रहे हैं।
-अजय प्रसाद
उम्र भर एक दुसरे को सताते रहे
खुद को हमेशा बेहतर बताते रहे ।
एक घर,एक दर व एक ही बिस्तर
बस अपने अपने रिश्ते निभाते रहे।
कोसते हुए अपने किस्मत को हम
एहसान एक दूसरे पर जताते रहे।
घर-बाहर, बच्चों के लिए ही सही
जिम्मेदारियां खुद की उठाते रहे ।
गर रस्म अदायगी ही है अजय रिश्ते
मर कर भी पति-पत्नी कहलाते रहे ।
-अजय प्रसाद
” मृतात्मा ”
अब
नहीं
होता
आहत
चिंतित
व्यथित,
बिचलीत
आतंकित
आशंकित
अचंभित
या किसी भी
कारण से क्रोधित।
क्योंकि अब हो गया हूँ
मैं जीत जागता महात्मा
जैसे कोई मृतात्मा।
-अजय प्रसाद
“शब्द”
शब्दों
के जैसा
शक्तिहीन
शायद कोई नहीं
जो अपने आप को इस्तेमाल
होने से बचा नहीं पाते।
कोई भी,कभी भी कहीं भी
आवेग में
आवेश में
क्लेश में
स्वदेश में
विदेश में
अपने ज़रूरत
के मुताबिक खुद को शक्तिशाली ,
कमजोर,चालाक, होशियार
शरीफ़ ,भद्र या बदमाश
साबित कर लेते हैं
उनका
इस्तेमाल
करके
-अजय प्रसाद
करता हूँ मैं कमेंट्स तो आपको भी करना होगा
चाहे घटिया ही पोस्ट करूँ लाइक्स भरना होगा ।
देखिए यहाँ सोशल मीडिया का है यही दस्तूर
इस परम्परा का निर्वाह आपको भी करना होगा ।
स्थापित साहित्यकारों की बात मैं नहीं कर रहा
मगर आप हो टुच्चे तो ज़रा मुझसे डरना होगा ।
जब भी लाइव आऊँ, तो तारीफ़ और बड़ाई करें
मेरे आलोचकों को आपको ब्लॉक करना होगा ।
अजय तुम तो खुद ही बहुत हो समझदार शायर
सब पता है कि आपको क्या क्या करना होगा
-अजय प्रसाद
भैंस के आगे यारों बीन बजा रहा हूँ
चुनावी मंच पे कविता सुना रहा हूँ ।
मिला है मौका बड़े दिनो के बाद तो
बहती गंगा में खुद हाथ धुला रहा हूँ ।
बस तारीफें मिले,तालियाँ बजती रहे
किस को है गरज़ क्या सुना रहा हूँ।
खुश हैं नेता जी भीड़ को देख कर
मैं उसी भीड़ का लुत्फ़ उठा रहा हूँ।
लगता है कि तुम सुधरोगे नहीं अजय
साफ़ कहो खुद को उल्लु बना रहा हूँ।
-अजय प्रसाद
कभी-कभी
आप बिना उस से
कुछ कहे ,खामोशी से
उसकी हर बात मान कर ,
चुपचाप हामी भर कर ,
बहुत प्यार से ,
मनुहार से ,
हर प्रकार से,
सिर्फ उसे
खुश करने के लिए ।
और उससे
छुपाने
के लिए।
बेहद
शान्त
रह कर
उस के
होने से
मुकरते हैं
क्योंकि
आप तो
नफ़रत
करतें
हैं
-अजय प्रसाद
तसव्वुर में भी तेरी मुझे मत बुलाना
भूलकर भी कभी खवाबों मत आना ।
ठेका लिया नहीं मैनें नखरे उठाने का
ये नज़ाकत किसी और को दिखाना ।
भूत जो सर पे सबार था तेरे इश्क़ का
अब तो उतरे भी हो गया है जमाना ।
बेवफ़ा कहना भी तौहीन है मेरे लिए
काफ़ी है तुझे मेरी नजरों से गिराना ।
चल किसी और को अब बना उल्लु
तजुर्बों ने अजय कर दिया है सयाना।
-अजय प्रसाद
इच्छा और शक्ति के बीच जो दुरी है
आम आदमी की एक बड़ी मजबुरी है ।
बीवी-बच्चे व स्वयं की मांगे हैं अथाह
और विचारे की थोड़ी सी ही मजूरी है।
खुद्कुशी ख्वाबों की तो तय हैं मंज़िल
दफन हसरतोँ का होना भी ज़रूरी है।
चैन की सांस और आराम की ज़िंदगी
अजी वो तो जैसे कोई मृग कस्तुरी है ।
तुम भी अकेले क्या कर लोगे अजय
तुम्हारी भी तो कुछ अपनी मजबुरी है ।
-अजय प्रसाद
–
अजीबोगरीब खौफ़नाक मंज़र देख रहा हूँ
चलते फिरते खुबसूरत खंडहर देख रहा हूँ ।
मिलतें हैं मुस्कुराकर हाथों में हाथ डाले ये
मगर ज़मीं दिल की बेहद बंज़र देख रहा हूँ ।
किश्तियाँ डूबती कहाँ अब किनारों पे आके
साहिलों से सूखता हुआ समंदर देख रहा हूँ ।
आइने यारों चिढाने लगते हैं देखकर मुझे
रोज़ खुद का ही अस्थि पंजर देख रहा हूँ ।
क़त्ल कर देता है जो कैफ़ियत बचपन से
हर बच्चे के हाथ में वो खंजर देख रहा हूँ ।
मेरी हस्ती भी अजीब दो राहे पर खड़ी है
हुई है अपनी गती साँप छ्छुंदर देख रहा हूँ
-अजय प्रसाद
खेद है आपकी रचना पत्रिका के लायक नहीं है
और साहित्यिक दृष्टिकोण से फलदायक नहीं है ।
आपकी लेखनी है मौलिकता में बेहद कमजोर
क्योंकि हुकूमत के लिए ये आरामदायक नहीं है ।
न छंदोबद्ध है,न बहर में ,न अंतर्गत कोई विधा
हाँ अवाम के जद्दोजहद की सच्ची परिचयाक है
आपकी रचनाओं में शालीनता की बहुत कमी है
और रचनाओं में भी कोई कृत्रिम नायक नहीं है ।
श्री मान अजय जी वापस की गई रचना आपकी
अनयत्र न भेजें,कहीं भी छपने के लायक नहीं है
-अजय प्रसाद
आईये आप को दिखाता हूँ मैं बाढ़ का नज़ारा
कैसे जलमग्न हुआ है घर,गावँ,गलियाँ चौबारा ।
वो जो जरा सा मुंडेर दिखाई देता है न पानी में
बस वही तो हुजूर डूबा हुआ है घरवार हमारा ।
आप न करें तकलीफ उतर कर यहाँ देखने की
प्रशासन ने तो किया ही होगा बन्दोबस्त सारा ।
हेलीकाप्टर,मोटरबोट अधिकारी और चपरासी
सब बताएँगे कि कैसे मुश्किलों से है हमें उबारा ।
आप बस राहत की राशि का एलान कर दिजीये
फ़िर देखें कितना जल्द होगा बाढ़ से निपटारा ।
राशि मिलते ही बंदरबाट हो जाएगी आपस में
हमारे इलाकों से बाढ़ का पानी निकलेगा सारा ।
यही परम्परा है जो इमानदारी से निभाई जाती है
पीड़ितों को मिलता है राशन हो जाता है गुजारा ।
तुम भी न अजय हो एक अव्वल दर्जे के बेवकूफ
जहाँ जाते हो खोल देते हो अपने मुहँ का पिटारा ।
-अजय प्रसाद
शायरों की महबूबा है गज़ल
आशिकों की दिलरुबा है गज़ल ।
अब क्या कहें कि क्या है गज़ल
बेजुबां शायरी की सदा है गज़ल ।
मीर,मोमिन,दाग,गालिब ही नहीं
कैफ़ि,दुष्यंत की दुआ है गज़ल ।
हुस्न की तारीफ,इश्क़ की नेमत
रकीबों के लिए बददुआ है गज़ल ।
बेबसों की बुलंद आवाज़ ही नहीं
इन्क़लाब की भी अदा है गज़ल ।
उर्दू की शान,अदब के लिए जान
मुशायरों के लिए शमा है गज़ल ।
हर दौर में निखर रही मुस्ल्सल
हर दौर की सच्ची सदा है गज़ल ।
औकात नहीं अजय तेरी, तू कहे
तेरे लिए तो इक बला है गज़ल ।
-अजय प्रसाद
गजलों को मेरी तू तहजीब न सीखा
मतला, मकता, काफ़िया, रदीफ न सीखा ।
कितनी बार गिराया है मात्रा बहर के वास्ते
कैसे लिखते हैं दीवान ये अदीब,न सीखा ।
देख ले शायरी में हाल क्या है शायरों का
किस तरह रह जाते हैं गरीब न सीखा ।
महफ़िलें, मुशायरें, रिसाले मुबारक हो तुझे
मशहूर होने की कोई तरक़ीब न सीखा ।
गुजर जाऊँगा गुमनाम, तेरा क्या जाता है
शायरी मेरी है कितनी बद्तमीज़ न सीखा ।
हक़ीक़त भी हक़दार है सुखनवरी में अब
ज़िक्रे हुस्नोईशक़, आशिको रकीब न सीखा ।
मेरी आज़ाद गज़लों पे तंज करने वालों
मुझे कैसे करनी खुद पे ,तन्कीद न सीखा ।
पढ़तें है लोग मगर देते अहमियत नहीं
अजय यहाँ है कितना बदनसीब न सीखा
-अजय प्रसाद
ऐसा नहीं कि गज़ल में सिर्फ़ बहर ज़रूरी है
खुद को बयां करने का भी हुनर ज़रूरी है
रन्ज़ोगम और इश्क़े सितम ही नहीं काफी
होना दिल पर दुनिया का कहर ज़रूरी है।
बारीकी से बर्दाशत करना है हालात को
और जमाने पे बेहद पैनी नज़र ज़रूरी है ।
अदीबों की इज्जत ,रिसालों से मोहब्बत
उम्दा शायरों के शेरों का असर ज़रूरी है ।
नकल नही ,इल्म के वास्ते पढ़ना ज़रूर
मीर,मोमिन गालिब,दाग ओ जफर ज़रूरी है ।
ज़िक्रे हुस्नो इश्क़,आशिक़ो वेबफ़ा ही नहीं
कैफ़ी और दुष्यन्त के साथ सफ़र ज़रूरी है ।
गज़लों में गर तुझे कहनी है बात सच्चाई से
पहले अजय होना इक सच्चा बशर ज़रूरी है
-अजय प्रसाद (बहर =छ्न्द बद्ध होना)
अपनी शर्तों पे जिया हूँ और कुछ नहीं
खुदा का नेक बंदा हूँ और कुछ नहीं ।
जिंदगी भर बस मुसलसल जद्दोजहद
आंधियों में एक दिया हूँ और कुछ नहीं ।
वक्त करता है रोज़ इस्तेमाल मेरा यारों
लम्हा-लम्हा मर रहा हूँ और कुछ नहीं ।
दिन गुजर जाता है सीखने-सिखाने में
रात सपनों को पढ़ा हूँ और कुछ नहीं ।
मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है
खुद से ही मैं खफा हूँ और कुछ नहीं ।
ढल रही है उम्र अजय अपनों के साथ
गैरों के दिल की दुआ हूँ और कुछ नहीं ।
-अजय प्रसाद
मुसल्सल =continuous
जद्दो-जहद =struggle
जिम्मेदारियों के साथ , मै कहता हूँ गज़ल
हद से बाहर होती है बात मै कहता हूँ गज़ल ।
हसरतों,ख्वाहिंशो,जरूरतों से जाता खिलाफ़
कर वक़्त से दो-दो हाथ ,मै कहता हूँ गज़ल ।
दिन जिंदगी के जंजालों से,शाम चाहनेवालों से
उलझती है जब मुझसे रात ,मै कहता हूँ गज़ल ।
थकन,घुटन,चुभन,क्या-क्या सहता है ये बदन
फिर जब लड़ती है हयात , मै कहता हूँ गज़ल ।
उदास मन,बेचैन धुन,है जिन्दगी जैसे अपशगुन
ताने देते है जब मेरे हालात,मै कहता हूँ गज़ल ।
झुलस गई जिन्दादिली जद्दो-जहद की आग में
लगते है जलने जब जज्बात ,मै कहता हूँ गज़ल ।
-अजय प्रसाद
देखिए जिसे वो गज़ल लिख रहा है
आए न आए मुसलसल लिख रहा है।
मै,तुम,ये ,वो ,सब के सब ,हर बात पे
हर हालात पे आजकल लिख रहा है ।
कोई बहर में है लिखता,कोई बे-बहर
कोई खुद से,कोई नकल लिख रहा है ।
कोई कहे, मुहब्बत को ज़रखेज ज़मीं
कोई खुबसूरत दलदल लिख रहा है ।
किसी को लगतीं हैं वो आँखें झील सी
कोई उनके चेह्रे को कंवल लिख रहा है ।
कोई खुश है किसी की यादों के साथ
कोई मिलने के लिए बेकल लिख रहा है ।
कोई बेवफ़ा,संगदील,हरजाई,सितमगर
कोई उन्हें ज़िंदा ताजमहल लिख रहा है ।
लोग मसगूल हैं मुस्तकबिल बनाने में
वक्त चेह्रे पे हिसाब हरपल लिख रहा है ।
तू क्यों परेशां हैं खुद से अजय अब तक
क्या तू खामोशी को हलचल लिख रहा है
-अजय प्रसाद
प्यार करना तू अपनी औकात देख कर
हैसियत ही नहीं बल्कि जात देख कर ।
दिल और दिमाग दोंनो तू रखना दुरुस्त
इश्क़ फरमाना घर के हालात देख कर ।
होशो हवास न खोना आशिक़ी में यारों
ज़िंदगी ज़ुल्म ढाती है ज़ज्बात देख कर ।
करना तारीफे हुस्न मगर कायदे के साथ
खलती है खूबसूरती मुश्किलात देख कर ।
क्या तू भी अजय, किसको समझा रहा
डरते कहाँ हैं ये लोग हादसात देख कर
-अजय प्रसाद
वक्त कि मार से तुम बच पाओगे क्या
जो अब तक नहीं हुआ ,कर पाओगे क्या
हो इतने मुतमईन कैसे अपनी वफ़ात पे
जिम्मेदारीयों से यूँही निकल जाओगे क्या
वादा किया था साथ निभाने का उम्रभर
तो मुझको आजमाने फिर आओगे क्या
माना कि हक़ीक़त मे ये मुमकिन ही नहीं हैं
मगर ख्वाबों मे आने से मुकर जाओगे क्या
तुम भी किस बात पे अड़ के बैठे हो अजय
उसने ने कह दिया नही तो मर जाओगे क्या
-अजय प्रसाद
मुतमईन =satisfied मुमकिन =possible
वफ़ात =death मुकर =disobey
आते हैं चैनलों पर क्या क्या इश्तेहार देखिए
पहुँच गया है अब तो घर-घर बाज़ार देखिए ।
साबुन,शैम्पू और कॉस्मेटिक्स के साथ-साथ
बिकतें हैं आजकल पर्व और त्यौहार देखिए ।
सिंगिंग, डांसिंग, कुकिंग और डेयरींग कॉन्टेस्ट
उसपर संडे ब्लॉकबस्टर से सजा इतवार देखिए ।
वीकएंड पे पार्टी जैसे शामें जुहू और चौपाटी
मस्ती मे चूर अब मध्यम वर्गीय परिवार देखिए
मत कहिये दोस्तों कि कुछ भी करतें नहीं हैं वो
हरकत में आ गयी है चुनावों में सरकार देखिए
-अजय प्रसाद
पाती प्रेम भरी कोई लिखी ही नहीं
मुझे मेरे जैसी कोई मिली ही नहीं ।
इज़हार न इकरार,न किसी से प्यार
मेरी किस्मत में है आशिक़ी ही नहीं ।
फूलों की चाह में काँटे ही मिले यारों
मेरे तक़दीर में खुशकिस्मती ही नहीं ।
खुदा जाने क्या हुई है खता मुझसे
करता मुझ से कोई दोस्ती ही नहीं ।
खुश रहे खुदा मुझे नहीं कोई शिकवा
तेरे आगे किसी की भी चलती ही नहीं ।
-अजय प्रसाद
ईंट का जवाब पत्थर हो ज़रूरी नहीं
मौत ज़िंदगी से बेहतर हो ज़रूरी नहीं ।
हाँ जी लेते हैं कुछ लोग गफलत में
हर किसी को मयस्सर हो ज़रूरी नहीं ।
खुदकुशि कर लेतीं हैं खुशियाँ खुशी से
मौत हमेशा मंजिल पर हो ज़रुरी नहीं ।
मुरझा जातीं हैं मायूसी भी हाल देख के
ज़ाहिर हर बार चेहरे पर हो ज़रूरी नहीं ।
हारना भी जीत का ही आगाज़ है अजय
जीतना तुम्हारा मुक़्द्दर हो ज़रूरी नहीं
-अजय प्रसाद
इससे पहले कि दोनो बदल जाएं
आओ वक्त रहते हम संभल जाएं ।
कोई वादा न करें, न कसम खाएं
छुड़ा के हाथ हम दूर निकल जाएं ।
न कोई गिले शिकवे,न करें मलाल
लफ्ज़-ए-मजबूरियाँ निगल जाएं ।
बिना किसी पे दिये कोई इलज़ाम
दिल से एक दूजे के निकल जाएं ।
बड़ा शौक था न ईश्क़ फरमाने का
अब कहो अजय हम फ़िसल जाएं ।
-अजय प्रसाद
आसान नहीं है आजकल बच्चों को बड़ा करना
पढ़ा लिखा कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना ।
तकनीक ने कर दी है तबाह मासूमियत उनकी
नहीं भाता है उन्हें आपस में प्यार से लड़ा करना ।
नज़रंदाज़ करतें हैं बुजुर्गो के नसीहतों को बेखौफ़
बुरा मानते हैं अब उस्तादों का,तमाचे,जड़ा करना ।
खुदगर्ज ख्वाहिशों के तले दफ़न है बचपन कहीं
वो छोटी-छोटी चीजों के लिए ज़िद पे अड़ा करना ।
जाने अजय कब होगा खत्म चलन ये ज़माने का
देख कर तरक्की औरों की नज़रों में गड़ा करना
-अजय प्रसाद
पलायन इन्सानों का नहीं इंसानियत की है
जंग लगी रहनुमाई और सड़े सियासत की है ।
अब तो बात हद से भी है आगे निकल चुकी
अब कहाँ यारों काबू में सब ज़्म्हुरियत की है ।
दोषारोपण के खेल में हैं माहिरों की जमातें
किसको कितनी चिंता यहाँ आदमियत की है ।
क्या बताएं कितनी तंगहालि में लोग जी रहे
किस कदर किल्लत आज नेक नियत की है ।
बेकार में अजय तू भी क्या बकवास है करता
खुदगर्जी में लिपटी लाश ये मासूमियत की है
-अजय प्रसाद
हमसे हमारे ख्वाब न छीन
काँटों भरी गुलाब न छीन ।
जिंदा तो हूँ गफलत में सही
यादों की ये सैलाब न छीन ।
बेहद सुकून से रहते हैं यहाँ
सुखे फूलों से किताब न छीन ।
कुछ तो रहम कर मेरे खुदा
मेरे हिस्से की अज़ाब न छीन ।
कहने दे मुझे नाकाम आशिक़
रकीबों से मेरा खिताब न छीन ।
हक़ है उन्हें भी बात रखने का
मजलूमों से इंकलाब न छीन ।
नये दौर मे तरक्की है जाएज़
मगर बच्चों से आदाब न छीन ।
जिंदा रख अजय अपने को
खुद से दिले बेताब न छीन
– अजय प्रसाद
चार दिन चांदनी फिर वही रात है
आजकल इश्क़ में ऐसा ही हाल है ।
पानी के बुलबुले जैसी है आशिकी
अब न मजनू है कोई ,न फरहाद है ।
हुस्न में भी वो तासीर अब है कहाँ
वो न लैला न शीरी की हमजाद है ।
जिस्मों में सिमट कर वफ़ा रह गयी
खोखलेपन से लबरेज़ ज़ज्बात है ।
माशुका में न वो नाज़ुकी ही रही
आशिकों में कहाँ यार वो बात है
इश्क़ में इस कदर है चलन आजकल
रोज जैसे बदलते वो पोशाक है
मतलबी इश्क़ है मतलबी आशिकी
प्यार तो अब अजय सिर्फ़ उपहास है ।
-अजय प्रसाद
जाने वो लम्हा कब आएगा
जब कुआँ प्यासे तक जाएगा ।
झाँकना अपने अन्दर भी तू
खोखला खुद को ही पाएगा ।
कब्र को है यकीं जाने क्यों
लाश खुद ही चला आएगा ।
थूका जो आसमा पे कभी
तेरे चेह्रे पे ही आएगा ।
इश्क़ में लाख कर ले वफ़ा
बेवफ़ा फ़िर भी कह लाएगा ।
वक्त के साथ ही ज़ख्म भी
देखना तेरा भर जाएगा
रख अजय तू खुदा से उम्मीद
वो रहम तुझ पे भी खाएगा ।
-अजय प्रसाद
कत्ल कर के मेरा, कातिल रो पड़ा
कर सका कुछ जब न हासिल,रो पड़ा ।
खुश समन्दर था मुझे भी डूबो कर
अपनी लाचारी पे साहिल रो पड़ा ।
आया तो था वो दिखाने धूर्तता
सादगी पे मेरी कामिल रो पड़ा।
जो बने फिरते हैं खुद में औलिया
हरकतों पर उन की जाहिल रो पड़ा ।
की मदद मज़दूर ने मजदूर की
अपनी खुदगर्जी पे काबिल रो पड़ा ।
जा रही थी अर्थी मेरे प्यार की
हो के मैयत में मैं शामिल, रो पड़ा ।
बिक गया फ़िर न्याय पैसों के लिए
बेबसी पे अपनी आदिल रो पड़ा
-अजय प्रसाद
रोज़ पढ़ता हूँ तुझे मैं अखबार की तरह
सुनता हूँ तेरी हर बात समाचार की तरह ।
तू मुझे देखे या न देखे ये तेरी मरज़ी है
देखता हूँ मैं तुझे आखरी बार की तरह ।
कितनी आसानी से मुकर जाते हैं लोग
भूल जाते हैं वायदे नयी सरकार की तरह ।
ज़माना तरस रहा है देखने को वो ज़माना
जब रहते थे सब मिलकर परिवार की तरह ।
पड़ने लगें हैं दौरे तुम पे अजय पागलपन के
आज कल लिख रहे हो इमानदार की तरह ।
-अजय प्रसाद
रौशनी भी तो अन्धेरे की मोहताज है
जैसे कल के पहलू में होता आज है ।
गैरतमंद हो गए हैं मुलाजिम मामूली
और बेगैरत यहाँ करते अब राज है
पनप रहा प्यार जिस्मों में पंगु हो कर
न कोई शाहज़हां न कोई मुमताज है
चहकती नहीं चिड़ियाँ अब तो मुंडेर पे
ये खामोशी यारो खतरे की आवाज़ है
ज़ख्म देकर ज़माना है बड़ा मुस्कुराता
खत्म अब मरहम लगाने का रिवाज है
तोड़ कर रस्मो को चलते हैं जो यहाँ
ठुकराता उसको पहले सभ्य समाज है
-अजय प्रसाद
पज़िराई=welcome इज़ाफा=increase
बड़ी बेरुखी से वो मेरी पज़िराई करता है
जैसे कि बकरे को हलाल कसाई करता है ।
भूल जाता हूँ मैं उसके हर वार को दिल से
जब भी मुस्करा कर मेरी कुटाई करता है ।
अज़ीब दस्तूर है इश्क़ में आजकल दोस्तों
सोंच समझकर आशिक़ बेवफाई करता है ।
हो जाता है इज़ाफा उसके चाहनेवालों में
जब कभी भी कोई उसकी बुराई करता है ।
बड़े आराम से रहते हैं मसले मेरे मुल्क के
क्योंकि यहाँ शासन ही अगुआई करता है ।
-अजय प्रसाद
कह दूँ
भरी दुपहरी को चांदनी रात कह दूँ
कदमों में तेरे मैं पूरी कायनात रख दूँ ।
फ़िर मत कहना कि मैंने बताया नहीं
तू कहे तो घर के सारे हालात रख दूँ ।
छुप कर इज़हारे इश्क़ मुझे मंजूर नहीं
भरी महफिल में दिल की बात रख दूँ ।
जरा सोंच ले मुझे आजमाने से पहले
कहीं तेरे आगे न तेरी औकात रख दूँ ।
गर हो जाये जानेमन तुझे रिश्ता कबूल
तो घर पे तेरे मैं अपनी बारात रख दूँ ।
-अजय प्रसाद
रह कर खामोश खुद को सज़ा देता हूँ
बेहद गुस्से में तो बस मुस्कुरा देता हूँ ।
सब नाराज़ हो कर क्यों जुदा है मुझसे
कहते हैं लोग मै आईना दिखा देता हूँ ।
क्यूँ रह गया महरूम उनके नफरत से भी
अक़्सर ये सोंच कर आँसू बहा देता हूँ ।
फूलों की अब नही है चाह मुझको यारों
काँटों से भी अब रिश्ते मै निभा देता हूँ ।
मिल जाए आसरा भी ज़रा रातों को
अक़्सर शाम ढलते ही दीया बुझा देता हूँ
-अजय प्रसाद
कोशिशें मेरी रंग लायेगी ज़रूर
सफ़र में हूँ मंजिल आयेगी ज़रूर ।
लाज़्मी है लगना ठोकर रास्तों पर
ज़िंदगी मेरी संभल जायेगी ज़रूर ।
लगेगा वक्त लोगों को अपनाने में
दावते सुखन कभी आयेगी ज़रूर ।
भले हो बाद मेरे मरने के शायद
गजलें मेरी वो गुनगुनायेगी ज़रूर ।
आज खुश है मुझे देख कर परेशां
नाकामीयां मेरी पछतायेगी ज़रूर ।
-अजय प्रसाद
जिंदगी यूँ ही जज्बात से नहीं चलती
फक़त उम्दे खयालात से नहीं चलती ।
रुखसत होता हूँ रोज घर से रोज़ी को
गृहस्थी चंदे या खैरात से नहीं चलती ।
मुसलसल जंग है जरूरी जरूरतों से
हसीं ख्वाबो एह्ससात से नहीं चलती ।
रज़ामंदी रूह की लाज़मी है मुहब्बत में
बस जिस्मों के मुलाकात से नहीं चलती ।
कब्र की अहमियत भी समझो गाफिलों
दुनिया सिर्फ़ आबे हयात से नहीं चलती ।
-अजय प्रसाद
जल रहा है वतन ,आप गज़ल कह रहे हैं
सदमे में है ज़ेहन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
कुछ तो शर्म करें अपनी बेबसी पे आप
जख्मी है बदन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
जले घर , लूटी दुकानें, गई कितनी जानें
उजड़ गया चमन,आप गज़ल कह रहे हैं ।
कर ली खुलूस ने खुदकुशि खामोशी से
सहम गया अमन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
खौफज़दा चीखों में लाचारगी के दर्दोगम,
है दिल में दफ़न ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
दोस्ती,भाईचारा,और भरोसे की लाशों ने
ओढ़ लिया कफ़न ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
रास्ते,गलियाँ,घर बाज़ार सब वही है मगर
है कहाँ अपनापन आप गज़ल कह रहे हैं ।
क्या कहें अजय हालत मंदिरो,मस्जिदों की
सब हैं आज रेहन आप गज़ल कह रहे हैं
-अजय प्रसाद ( रेहन =बंधक )
इस कदर हम से खफ़ा है वो
जिंदा रहने की देता दुआ है वो ।
ख्व़ाब कोई न पनप जाए कहीं
हैसियत मेरी बता देता है वो ।
डरता रहता हूँ तन्हा होने से मैं
अपनी यादों में बुला लेता है वो ।
नामुमकिन है बचना यारों उससे
खूबसूरत हसीन इक बला है वो ।
फूल,तितली, खुशबू,या है तारा
अब क्या कहें अजय क्या है वो ।
-अजय प्रसाद
फ़ले फुले अमीर और गरीबों का भी गुजारा हो
डूबते हुए को कम से कम,तिनके का सहारा हो ।
हर तरफ चैन-ओ-अमन और महफ़ूज हो वतन
या खुदा अपने मुल्क मे एसा भी तो नजारा हो ।
ज़ुल्म मिटें,इल्म बढ़े,और हो हरकोई खुशहाल
मिल-जुलकर सब रहें यहाँ,दिल में भाईचारा हो ।
रोटी,कपड़ा और मकान,हो न्याय में सब समान
न कोई गरीब, न कोई बेबस, न कोई बेचारा हो ।
चाहे हो कोई दिन ,वार,पर्व या कोई भी त्योहार
रौशन हर मंदिर ,मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारा हो ।
-अजय प्रसाद
जल गया रावण अहंकार रह गया
फ़िर एक बार राम लाचार रह गया ।
मोह, माया ,क्रोध,वासना और लालच
जिंदा आदमी में सब विकार रह गया ।
आचरण में इंसानियत और सच्चाई
बन के फ़कत आज विचार रह गया ।
शैतान शर्मिन्दा है हरकतों पे हमारी
हो के सादगी का वो शिकार रह गया ।
फ़िर न होश में आ सका ये ज़माना
मानसिक रूप से जो विमार रह गया ।
कोई काम न आई तेरी सब कोशिशें
अजय तू आज तक बेकार रह गया ।
-अजय प्रसाद
भगवान तू है मौजूद, मुझे इसपे शक़ नहीं
मगर हुआ मेरे दिल को यकीं अबतक नहीं
पूजा,नमाज़,हज़ और तीर्थ गर है सच्चा
फिर सीखते हैं लोग भला क्यूँ सबक नही
रामयण,महाभारत,कुरान, बाईबिलौ गीता
पढ़ के गर हैं लड़तें ,तो क्या अहमक नही
जी रहें इस दौर में हम बगैर ज़िंदादिली के
जायका-ए-जिंदगी मे जैसे है नमक नही ।
हर चीज़ अपनी जगह लगती है अधूरी सी
महफिलों मे भी अब रह गई वो रौनक नही ।
-अजय प्रसाद
करके गंगा स्नान अपने पाप धो रहें हैं
सोंचते हैं गुनाह उनके माफ़ हो रहें हैं ।
पूजा-पाठ,दान और ध्यान,धरम ,करम
सारे दिखावे आजकल साथ हो रहें हैं ।
चुस कर खून गरीबों का बने हैं अमीर
वही लोग अब गरीबी का रोना रो रहें हैं ।
सियासत पे सितम जो वर्षो ढोते रहे थे
आज दिलों में नफरत के बीज बो रहें हैं ।
बदनसीबी हमारी अब क्या कहें अजय
लाश अपने अरमानों का आप ढो रहे हैं ।
– अजय प्रसाद
दिल में कोई उम्मीद पनपने नहीं देते
जिम्मेदारियां मेरी मुझे बहकने नहीं देते ।
बस भटकना ही मेरी तक़दीर है शायद
रास्ते मुझे मंजिल तक पहुंचने नहीं देते ।
कुरेद ही देते हैं अक़्सर सूखने से पहले
कुछ लोग मेरे ज़ख्मों को भरने नहीं देते ।
चाहता तो हूँ मैं साथ जमाने के चलना
मगर ईमानदारी से मुझे चलने नहीं देते ।
गरीबी में ज़िन्दगी गुजारना शौक नहीं है
हालात मेरी हैसियत ही बदलने नहीं देते
-अजय प्रसाद
सज़दे मे नहीं गये तो कभी शिकायत नहीं की
यूँ हीं बेदिली से हम ने कभी इबादत नहीं की ।
कर खुद को दिया खामोशी से हवाले जहां के
रिश्तों की हुकूमत से कभी बगावत नही की ।
हर शख्स ने दिया दगा है मुझे दोस्त बनकर
मगर मैने तो इंसानियत से खिलाफत नही की
जिंदगी ने तो जमकर इस्तेमाल किया है मेरा
और मौत ने मुझपर कभी इनायत नहीं की ।
फिर कहीं मुझसे नाराज़ न हो मेरी तन्हाइयां
यादों की इसलिए मैने कभी हिफाजत नही की ।
-अजय प्रसाद
आशिक़ी मेरी सबसे जुदा रही
ज़िंदगी भर वो मुझसे खफ़ा रही ।
देखता मैं रहा प्यार से उन्हे
बेरुखी उनकी मुझ पर फिदा रही ।
ये अलग बात है उनके हम नहीं
वो हमेशा मगर दिलरुबा रही ।
रात भी, ख्व़ाब भी ,नींद भी मेरी
फ़िक्र तो उनके बश में सदा रही ।
जोड़ना दिल मेरी कोशिशों में थी
तोड़ना दिल तो उनकी अदा रही ।
वक्त के साथ वो भी बदल गए
वास्ते दिल में जिनके वफ़ा रही ।
क्या करें अब, अजय तू ज़रा बता
मेरी किस्मत ही मुझसे खफ़ा रही ।
-अजय प्रसाद
खुद से ही आज खुद लड़ रहा आदमी
अपनी ही जात से डर रहा आदमी
दौड़ते भागते सोते औ जागते
सपनो के ढेर पर सड़ रहा आदमी ।
इस कदर मतलबी बन गया आज वो
खुद के ही नज़रो में गड़ रहा आदमी ।
रात दिन छ्ल रहा अपने ही आपको
अपनो के पीछे ही पड़ रहा आदमी ।
अब अजय इस जमाने की क्या बात हो
आदमी से जहाँ जल रहा आदमी
-अजय प्रसाद
नया साल मुबारक हो!!!
नये साल के जश्न में डूबी रात मुबारक हो
वही मुल्क और वही हालात मुबारक हो ।
वही सुबह, वही शाम, वही नाम ,वही काम
वही उम्मीदों की झूठी सौगात मुबारक हो ।
वही मिलना, बिछड़ना,रूठना और मनाना
ज़िंदगी से फिर वही मुलाकात मुबारक हो ।
तकनीकी तरक़्क़ी और खोखली रंगरलिया
दम तोड़ती तहजीब की वफ़ात मुबारक हो ।
बेलगाम नयी पीढ़ी, लिए खुदगर्ज़ी की सीढ़ी
रिश्तों ,रिवाजों से दिलाते नीज़ात मुबारक हो ।
लूट,मार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार और ब्लात्कार
अन्धा कानून और बेजा हवालात मुबारक हो ।
आत्महत्या करते किसान,बेरोजगार नौजवान
आतंकित समसामयिक सवालात मुबारक हो ।
शोर शराबा ,अश्लील पहनावा और नंगा नाच
गालियों से भरे बेसुरे भद्दे नगमात मुबारक हो ।
मुद्दों से भटके चैनलों पे चर्चे,बेशर्म नुमाइंदों के
करते टीवी पे बद ज़ुवानी फंसादात मुबारक हो
हर बार की तरह ,हर साल की तरह हम सब को
अजय,उम्मीद पे कायम ये कायनात मुबारक हो ।
-अजय प्रसाद
वक्त के साथ जो चल नहीं पाते
हैसियत अपनी बदल नहीं पाते ।
जो फिसल गये यारों जवानी में
उम्र भर फिर वो संभल नहीं पाते ।
लाख करें हम कोशिश बचने की
मौत के डर से, निकल नहीं पाते ।
सड़ जातें हैं तालाब की मानींद
हद से कभी जो निकल नहीं पाते ।
हासिल उन्हें होती है कामयाबी
इरादे जिनके कभी टल नहीं पाते
-अजय प्रसाद
गिर चुका है मेरी नजरों से वो ज़माने का क्या
गुजर गया है वक्त मगर उस फसाने का क्या ।
चलो ठीक है आज वो मुतमईन हैं हालात से
कल मझधार में छोड़कर आए बहाने का क्या ।
खुदा ने दी है कुव्वत सोचने समझने,परखने की
जानबूझकर ही जो सोए हैं उन्हें जगाने का क्या ।
आकर मैयत पे हुई है आँखें जो उनकी आज नम
रूठ जब मैं ज़िंदगी से ही गया तो मनाने का क्या
अब तो दर्द भी दुआएं ज़्ख्मों को देने लगें हैं दोस्तों
ज़रा सोंचियें फ़ायदा होगा भी अब सताने का क्या ।
औकात तेरी अजय तू जान ले दो कौड़ी भी नहीं है
भला फ़िर करेगा तू कोशिश नाम कमाने का क्या ।
-अजय प्रसाद
(आज़ाद गज़ल)
कर चुके ज़लील,अब ज़र्रानवाज़ी होनी चाहिए
शराफत में नज़ाकत भी शैतानी होनी चाहिए
फ़कत अवाम के वोट से कुछ नहीं होता अब
सत्ता के लिए कुछ तिकड़मवाज़ी होनी चाहिए ।
नये दौर में नये तरीकों की सियासत लाज़मी है
जम्हुरीयत के नाम पर जुम्लेबाजी होनी चाहिए ।
पूछे कोई सवाल और न कहीं करे कोई बवाल
जहाँ करें सब गुलामी,वो आज़ादी होनी चाहिए ।
हड़तालें,तोड़फोड़,और आगजनी में मददगार
लोगों को भड़काने को नारेबाजी होनी चाहिए ।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना इनका मक़सद नहीं
चाहते हैं हिंसा और पत्थर बाजी होनी चाहिए ।
गरीबों की गरीबी और अमीरों की अमीरी में
रहनुमाओं की भरपूर हिस्सेदारी होनी चाहिए ।
हर बात पे कोसना सरकार को भी ठिक नहीं
यारों अपनी भी कुछ जिम्मेदारी होनी चाहिए ।
-अजय प्रसाद
वक्त और हालात बिक रहे हैं
जिस्म और ज़ज्बात बिक रहे हैं ।
इस खुदगर्ज दुनिया मे दोस्तों
रिश्ते और औकात बिक रहे हैं ।
बिक रही लैला, बिक रहे मजनूँ
जुदाई और मुलाकात बिक रहे हैं ।
बिक रही ज़र,ज़ोरू,ज़मीं वर्षों से
मज़हब और जात बिक रहे हैं ।
रास्ते बिक रहे हैं मंजिलें बिक रही
सफ़र और सौगात बिक रहे हैं ।
-अजय प्रसाद
मै तो गया गुजरा ठहरा ,तू बता
हाशिये पे हरदम ही रहा,तू बता ।
थी हैसीयत नही की बात रखता
उपर से हुजूर भी खफा, तू बता ।
न दवा,न दुआ,न कोई उम्मीद की
हस्र मुझे था पहले पता, तू बता ।
अपने लिए तो मय्य्सर ही न हूई
चाहत दोस्ती और वफा, तू बता ।
तारीफ़ न सही तनक़ीद तो कर
आखिर हूँ मैं सबसे जुदा, तू बता
मौत मुस्कुराती है हालात पे मेरी
ज़िन्दगी बन गई है सज़ा, तू बता ।
न रहम, न करम वक्त भी बेरहम
फेर लिया है मुहँ भी खुदा,तू बता ।
छ्पना,पढ़ना,रद्दी के भाव बिकना
आखिर तो होना है फना तू बता ।
तेरी हस्ती से मुझे कोई गुरेज़ नहीं
फ़िर अजय से क्यों चिढ़ा,तू बता ।
-अजय प्रसाद
आईये फहराएं तिरंगा जश्न-ए-आजादी है
हालात से मत हो अचंभा जश्न-ए-आजादी है
बेरोजगारी,भ्रष्टाचारी,बलात्कारी के साथ ही
रहे कौम में भूखा नंगा जश्न-ए-आजादी है।
हिंसक भीड़ के हाथों होते संहार इंसानों का
मज़हब के नाम फ़ले दंगा जश्न-ए-आजादी है ।
तकनिकी दौर में तरक्की करती नई पीढियाँ
खुदगर्ज़ सोंच,बाल बेढंगा जश्न-ए-आजादी है ।
जाने भी दे अब इतनी बेरुखी भी नहीं अच्छी
मत ले अजय आज पंगा जश्न-ए-आजादी है ।
-अजय प्रसाद
•
हमसे हमारे सरकार खफ़ा हैं
जाने क्यों बरखुरदार खफ़ा हैं ।
चिढ़े-चिढ़े रहते हैं वो आजकल
क्या कहें कब से यार खफ़ा हैं ।
शक उन्हें है हमारी वफाओं पे
शिकवे-गिले भी हज़ार खफ़ा हैं ।
लाख जतन कर के हार गए हम
दिल में दर्दोगम के गुबार खफ़ा हैं ।
जाँ दे कर अजय उन्हें मनाऊँगा
शायद इल्म हो के बेकार खफ़ा हैं ।
-अजय प्रसाद
खिसक रही है ज़मीं पाँव तले से
और खौफ ज़रा नहीं जलजले से ।
अजीब दौर है आ गया अब दोस्तों
खुदगर्जी फैल रही अच्छे भले से ।
न किसी को मतलब है किसी से
न कोई लगाता है किसी को गले से ।
वो तो नफरत से ही देगा हर जवाब
पूछ रहे हो हाल गर दिल जले से ।
तू भी अजय किसे समझा रहा है
बात उतरेगी ही नहीं इनके गले से ।
-अजय प्रसाद
आशिक़ी मेरी दोस्तों अधूरी रही
ख्वाबों में भी उनसे मेरी दूरी रही ।
बेवफा क्यों उसे कहें हम भला
कुछ तो अपनी ही मज़बूरी रही ।
न इज़हार,न करार, न कोई तकरार
जुदाई में हमारी रब की मंजूरी रही ।
न सजदे में गए और न शिकवे किए
मुहब्बत में खामोशी जो ज़रुरी रही ।
कामयाबियों ने चूमे कदम उनके हैं
आदतों में जिनकी जी हुजूरी रही ।
-अजय प्रसाद
दिमागी दिवालियेपन की हद है
ख्वाबों में जीने की जो आदत है ।
इमानदारी से मेहनत के बगैर ही
चाह बेशुमार दौलत की बेहद है ।
हश्र पता है सबको अपना मगर
अपनी नज़रों में सब सिकंदर है ।
नंगापन,ओछापन, बदजुबानी ही
शोहरत के लिए अब ज़रूरत है ।
रखकर तहजीबों को ताख पर
करते बुजुर्गो से रोज बगावत है ।
क्या करेगा अजय तू चीख कर
सुनता कौन तेरी यहाँ नसीहत है ।
-अजय प्रसाद
हादसों के बीच पला हूँ
खुद के लिए ही बला हूँ
नूर यूँ ही नहीं है चेह्रे पे
हँस कर गमों को छला हूँ
मन्नतें कभी पूरी हूई नहीं
दुआओं को भी खला हूँ ।
छाछ हूँ फूँक कर पीता
यारों मैं दुध का जला हूँ ।
मंज़िल कि है तलाश मुझे
अकेले ही सफर पे चला हूँ ।
हाँ,इक बुरी लत है मुझमें
चाहता सबका मैं भला हूँ ।
-अजय प्रसाद
जहाँ कद्र न हो आपकी जाया न करें
हालात पे किसी के मुसकुराया न करें ।
पता नही कौन,कहाँ,कैसे काम आए
हर किसी को दर से ठुकराया न करें ।
नये दौर मे नये सलीके से पेश आये
वेबज़ह अपनी नसीहत ज़ाया न करें ।
जो है हक़ीक़त उसे कर लें हम कबूल
झूठी आश से खुद को भरमाया न करें ।
बेशकीमती हैं वोट आपके ज़रा समझें
जात-पात के नाम पर यूँ लुटाया न करें ।
-अजय प्रसाद
तक़सीम हुआ था मुल्क मसाइलों के लिए क्या
आज़ादी हमने पाई इन काहिलों के लिए क्या ।
देते खोखले आश्वासन,बहाते हैं घड़ियाली आसूँ
जाँ गँवाई जवानों ने इन जाहिलों के लिए क्या
दफन है दफ्तरों में तरक्की अनगिनत गावों की
किए थे वायदे फक़त फाइलों के लिए क्या ।
-अजय प्रसाद
आँखों में है दो तस्वीरें मेरे वर्तमान भारत की
इक तरफ़ है नजरें,इनायत इक पे हिकारत की ।
भूख ,गरीबी ,झोपड़पट्टी बेबस ओ लाचारी है
दूजे तरफ़ है देखिये मॉल मस्ती व तिज़ारत की ।
लुटती अस्मत, पिटती जनता, और झूठे वादे है
ढाते जुल्म वही है जो खाते कसम हिफाजत की ।
लेकर कर्ज करोडों का ऐश करते हैं बिदेशों मे
जान गवांनी पड़ रही हैं जिन्होंने शराफ़त की ।
नाम बदलने से क्या नजरिया बदल जायेगा
इक हमाम मे सब नंगे हैं रहनुमा सियासत की।
-अजय प्रसाद
चलिए हम आज मॉल चलकर देखतें हैं
कुछ पलों को माहौल बदलकर देखतें हैं !
उम्र भर के लिए तो शायद नामुमकिन है
हाँ कुछ दूर आपके साथ टहलकर देखतें हैं ।
फूँक फूँक के कदम बहुत रक्खा है मैंने
सोंचता हूँ अब क्यूँ न फिसलकर देखते हैं ।
पहले तो मुहल्ले में सब मिलकर ही रहते थे
अब तो, थोड़ा रुक कर ,संभलकर देखतें हैं ।
भूल कर माज़ी की बातें,हाल को सँवारें हम
निकल चुका वो ,इससे भी निकलकर देखतें हैं ।
-अजय प्रसाद
चाहता जो हूँ अभी लिख पाया कहाँ
वो मिजाज, वो फलसफ़ा आया कहाँ
आप कहतें है, उम्दा है ,तो शायद होगा
मेरे मुताबिक मै अभी सोच पाया कहाँ
सोई है जनता कब से गफ़लत की नींद मे
उन्हे ठीक से अभी मै जगा पाया कहाँ
सिर्फ़ बदन नही ,जेहन तक जो हिला दे
वो तब्दीली के तलातुम ला पाया कहाँ
गज़लों मे तेरी ,अजय अभी बेहद कमी है
वो लहजा,वो पैनापन अभी आ पाया कहाँ
***
Storm =तलातुम ,
-अजय प्रसाद
भिखारी भी भीख देने वाले को दुआ देता है
और नेता वोट देने वालों को ही भूला देता है ।
जानता है बखूबी सियासत को जिंदा रखना
धर्म व जात के नाम पे लोगो को लड़ा देता है ।
मारे जाते है भूखमरी से न जाने कितने गरीब
सरकारी लापरवाही टनों अनाज सड़ा देता है ।
शक रिश्तों में कर देता है पैदा दरारें गहरी
खलीश जिगर में दुशमनी को हवा देता है ।
मत कर गरूर अजय अपनी बुलंदी पे अभी
वक्त शख़्स की शख्सियत तक मिटा देता है ।
-AJAY PRASAD
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बच्चों को एक संयुक्त परिवार दे नहीं पाया
अच्छी परवरिश भी मैं यार दे नहीं पाया ।
मोबाइल,शिक्षा,ऐशो-आराम कपड़े तो दिये
मगर अफसोस अच्छे संस्कार दे नहीं पाया ।
व्हाट्सप,फेसबुक ,टिकटोक ,ट्विटर से परे
तकनीक से अलग रिशतेदार दे नहीं पाया ।
दादा दादी का प्यार,न नाना नानी का दुलार
अपनेपन से भरपुर इक त्योहार दे नहीं पाया ।
फास्टफूड आहार और है मशीनी सोंच विचार
पर ज़िंदादिल ज़्ज़्वाती व्यबहार दे नहीं पाया ।
ख्वाहिशें,फ़रमाइशें और ज़िद मान ली उनकी
मगर एक भी ज़ायज़ इन्कार दे नहीं पाया ।
-अजय प्रसाद
रौनक मेरी महफिलों की कोई और ले गया
वो शानो-शौकत,वो फिज़ा, वो दौर ले गया ।
ढलते ही उम्र वो चमक झुर्रियों में बदल गई
मेरे चेह्रे पे टिकती निगाहों का गौर ले गया ।
बागों में टहलना,बारिशों में भींगना, भींगाना
वो शाम,वो नदी का किनारा,वो ठौर ले गया ।
तक़नीक और तरक्की तो अमीरों को भा गई
गरीबों की तो रोज़ी,औ खाने का कौर ले गया ।
नाज़ जमाने के उठाते फिरते थे हम शौक़ से
जो कभी सजते थे सर पे वो सिरमौर ले गया
-अजय प्रसाद
ये और बात है मुझ को तेरी कमी है
मगर तेरे बगैर भी ये दुनिया वही है ।
क्यूँ मैं शिकवा करूँ तेरी बेवफाई का
तेरी खुशी में ही तो मेरी भी खुशी है ।
जब इज़हार ही नहीं तो, इकरार क्या
प्यार में दोनो तरफ़ बस खामोशी है ।
दिल की बात रही दिल में ही महफ़ूज
दोनो की अपनी-अपनी ही मज़बूरी है ।
मिलता नहीं है मुझको आराम जहां में
मौत के साये पल रही मेरी ज़िंदगी है
फ़िर न बसा दिल में कोई तेरे बाद
अजय शायद इसे ही कहते बंदगी है ।
-अजय प्रसाद
कत्ल कर के मेरा,कातिल रो पड़ा
जब हुआ कुछ न हासिल, रो पड़ा ।
समंदर तो खुश था मुझे डूबो कर
लाचारी पे अपनी साहिल रो पड़ा ।
आया तो था बड़ी चालाकी दिखाने
देख नादानीयाँ मेरी कामिल रो पड़ा।
किस कदर बेअदब हैं ये अदब वाले
बस यही सोंच कर जाहिल रो पड़ा ।
मदद की गरीब ने इक अमीर की
अपनी तंग दिली पे काबिल रो पड़ा ।
गुजर रही थी मैयत मेरी मुहब्बत की
होकर जनाज़े में मैं शामिल, रो पड़ा ।
-अजय प्रसाद
बस इक दुआ कबूल हो जाए
फ़िर चाहे सब फिजूल हो जाए ।
जो ढा रहे हैं ज़ुल्म मजलूमों पर
ज़िंदगी उन की बबूल हो जाए ।
मदद न सही ,तो मक्कारी भी नहीं
अमीरों का बस ये उसूल हो जाए।
भटक रहे हैं लोग बदहवास जहां में
या खुदा और एक रसूल हो जाए
मूंद लूँ मैं आँखें इत्मीनान के साथ
गर मेरी ये इल्तिज़ा कबूल हो जाए
– अजय प्रसाद
हमने तो सुखे हुए समंदर देखें हैं
क्या क्या खौफनाक मंज़र देखें हैं ।
ठूठें दरख्तों पर उजड़े हुए घोसलें
इन्क़लाब करते हुए बन्दर देखें हैं ।
मखमली बिस्तर पे बेचैन अमीर
और फक्कड़ मस्त कलंदर देखें हैं ।
फ़र्श से अर्श,ज़र्रे से आफताब बन
मिट्टी में मिलते हुए धुरंधर देखें हैं ।
चकाचौंध महलों में सुनसान रिश्ते
घनिष्टता झोपड़ियों के अन्दर देखें हैं ।
दिल में रहेंगे मगर साथ घर में नहीं
हमने अजय ऐसे भी सितमगर देखें हैं
-अजय प्रसाद
कुछ तो अच्छे काम कर दूँ मरने से पहले
वसीयत किसी नाम कर दूँ मरने से पहले ।
जीवन बीमा,ज़मा-पूँजी,बैंक-बैलेंस,पेंशन
सब का इन्तज़ाम कर दूँ मरने से पहले ।
घर -गाड़ी और न हो बच्चों की जिम्मेदारी
बीवी को ये आराम कर दूँ मरने से पहले ।
कोई गिले,शिकवे न मलाल रहे दोस्तों को
यादगार उनकी शाम कर दूँ मरने से पहले ।
जो सताते हैं मजलूमों को दिन रात बहुत
जीना उनका हराम कर दूँ मरने से पहले ।
कोई तो ले जिम्मा मेरी तरह लिखने की
ये कलम उसके नाम कर दूँ मरने से पहले ।
मुफलिसी मुफ्त खोरी नही सिखाती कभी
ज़िक्र ये हाले अवाम कर दूँ मरने से पहले ।
कहीं कोई कमी न रह जाए मेरी रुसवाई में
खुद को बदनाम नाम कर दूँ मरने से पहले
बहुत हो चुका अजय घुट घुट कर यूँ जीना
क्यूँ न किस्सा तमाम कर दूँ मरने से पहले
-अजय प्रसाद
तू इमानदार है या नहीं अपने अंदर से पूछ
हारा क्या था सब जीत कर सिकंदर से पूछ।
खामोशी समेटे रहती है राज़ न जाने कितने
लहरों से क्या पूछता है,गहरे समंदर से पूछ ।
बड़े अकड़ से रहता था वो जोशे जवानी में
वक़्त ने किया क्या हाल उस धुरंदर से पूछ ।
खुदा की खिदमत में जिसने उम्र गुजार दी
कितनी मस्ती में गुजारी,उस कलंदर से पूछ ।
क्या क्या करतब है करने पड़ते पेट के लिए
मदारी के इशारों पे नाचने वाले बन्दर से पूछ
-अजय प्रसाद
सज जाती हैं दुकानें सब बाजारों में
बिक जातें हैं भगवान भी त्यौहारों में ।
नही बच पाते हैं लोग इनकी चालों से
वो सब्ज्बाग दिखातें हैं इश्तेहारों में ।
नाना-नानी, दादा-दादी , नाती-पोते
अब कँहा मिलके रहतें हैं परिवारों में
चाहें तो कर सकते हैं ये दूर गरीबी को
भला फ़िर रहेगा क्या मुद्दा सरकारों में
गर जानना है अजय अपनी कीमत यहाँ
दे दो खबर तुम्हारे मौत की अखबारों में ।
-अजय प्रसाद
लैला,मजनू,सोनी,महिवाल , शीरी या फरहाद नही
आशिक़ी मे हमने ली किसी से कभी इमदाद नही ।
शायद लोगो को बेहद कड़वी लगती है मेरी गजलें
सच से रुबरु कराते मेरे शेरों को मिलती दाद नही ।
लिखूंगा वही जो जायज है इस दूनियाँ के लिये
मेरी शायरी अभी हुई हक़ीक़त से आजाद नही ।
न महफिल-ए-ग़ज़ल,न मुशायरे की ही दावतें
मेरी शायरीएबुलबुल की सुनी क्यूँ फरियाद नही
मतला,मकता,काफिया, रदीफ़ ओ बहर हैं खफा
क्यूँ इन सब को हुस्नो ईश्क़ पे किया बर्बाद नही ।
-अजय प्रसाद
होती है क्या तरक्की किसी गरीब से पूछो
छिन गई हो जिसकी रोज़ी बदनसीब से पूछो।
रहनुमा रहम दिल हो ऐसा कभी नहीं हुआ
किस कदर ये खलती है ,टूटती उम्मीद से पूछो ।
छिन ली रिसालो की हुकूमत बदलते वक्त ने
हश्र क्या हुआ लिखने बालों का,अदीब से पूछो ।
खामोश खड़ा देखता है रोज़ अपने आस पास
किस तरह उड़ती है धज्जियां तहजीब से पूछो ।
मौत मुतमईन है अजय आदमी के इन्तेजाम से
दुआ,दवा ,ईलाज है क्यूँ बेअसर,मरीज़ से पूछो ।
-AJAY PRASAD
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सुना है जो जैसा बोता है बैसा ही पाता है
फ़िर चिराग तले ही अन्धेरा क्यों होता है ।
जब तय है कि मेहनत का फल होगा मीठा
क्यों मजदूर ही विचारा कड़वे घूंट पीता है ।
अभावग्रस्त जीवन ,व्यथित आशंकित मन
हर दौर मे क्यों अश्क़ों से दामन भिगोता है ।
भर पेट भोजन और न सुरक्षित आश्वासन
मजदूरी भी उसे उचित कहाँ मिल पाता है ।
ये कैसी विडम्बना है ज़रा सोंचिये हुजूर
मजदूर दिवस पर भी अपने काम पे होता है ।
-अजय प्रसाद
आईने कभी भी हमें सच नहीं दिखाते
जेहन मे क्या है किसी के नहीं बताते ।
संवरते हैं लोग कब, किस मकसद से
चेहरे पे वो कभी उभरकर नहीं आते ।
रौशनी है गुनाहगार हर अक़्स के लिए
वरना अंधेरे हमसे कुछ नहीं छिपाते ।
कर्जदार है चाँद ,सूरज का सदियों से
तारे उधार की नूर से नहीं टिमटिमाते ।
जो है,जितना है उसी में खुश रह अजय
वक्त से पहले ,हक़ से ज्यादा ,नहीं पाते
-अजय प्रसाद
मेरी शायरी मे यार मुहब्बत न ढूंढ
हुस्न और इश्क़ की लज़्ज़त न ढूंढ ।
महरूम हैं मेरे शेर जलवाए महबूब से
ज़िक्र तू यहाँ हसिनाए खूबसूरत न ढूंढ।
मत कर नेताओं के वादों पर भरोसा
सहरा में यार समंदर की फितरत न ढूंढ ।
रहने दे मासूमों की मासूमियत महफ़ूज
इनकी आँखों में अभी से नफरत न ढूंढ ।
फ़िर न होगी अजय मुझसे ज़ुर्मे मुहब्बत
कहे दिल मुझसे कोई ऐसी ज़ूर्रत न ढूंढ ।
-अजय प्रसाद
रिश्ते भी अब रिसने लगें हैं
गैर मुझे सब दिखने लगें हैं ।
कल तक था जो मन मुटाव
बन के नासूर टिसने लगें हैं ।
सच्चाई, ईमानदारी, तहजीब
धीरे-धीरे सब घिसने लगें हैं ।
बेहयाई ,बेईमानी,भ्रश्टाचारी
लंबे समय तक टिकने लगें हैं ।
हालात और हसरत के बीच
इंसानियत अब पिसने लगें हैं ।
-अजय प्रसाद
वो मुझको मेरे अन्दर से ले गया
सारा पानी ही समंदर से ले गया ।
न लहरें ,न कश्ती ,न अब किनारे है
पूरी हस्ती यूँ सिकंदर से ले गया ।
जिंदादिली जिंदगी मे रुक सी गई
सारी मस्ती वो कलंदर से ले गया ।
जकड़ लिया जिम्मेदारियों ने उसे
ज़ोशो जूनून सारे धुरंदर से ले गया ।
रह गयी विरानियां उम्रभर के लिए
भरी महफिल ही अंदर से ले गया ।
-अजय प्रसाद
ऐसा नही कि नई पीढ़ी से कोई शिकायत है
मानें या न मानें बस उन्हें देनी चंद हिदायत है ।
यकीनन मुस्तकबिल बेहतरी का हक़ है उन्हें
पर न भूलें सदियों के जो तहजीबो रवायत है ।
बुजुर्गों की इज्जत और रिश्तों की हिफाज़त
करना मजबूरी नही ,बल्कि खुद पे इनायत है ।
खुद पे भरोसा,खुदा पे यकीन,जेहन से जहीन
आज के दौर मे नौजवाँ के लिए किफायत है ।
गिरते को उठाना,रोते को हँसाना गर आता है
समझो अजय तुममें,जिंदा अभी इंसानियत है ।
-अजय प्रसाद
यादें मेरी मुझ पे है मेहरबान बहुत
तन्हाईयों का भी है एहसान बहुत ।
सपनों ने तो छला है जी भर कर
आंखों के है आँसू मेहमान बहुत ।
दिल ने भी किया दगा है अक़्सर
धड़कन करती है परेशान बहुत ।
वक़्त ने छीन ली है मेरी जवानी
पर ख्वाहिशें है अभी जवान बहुत ।
महफ़िलों से तो हैं रंजिशें पुरानी
खुश रहते हैं मुझसे बियावान बहुत ।
-अजय प्रसाद
नई पीढ़ी से उम्मीदें तो है पर खास नही
जेहन से जो गाँधी,नेहरु या सुभाष नही ।
खुदगर्ज़ ख्याल,बेतरतीब बिखरे हुए बाल
तन पे तहजीब को सँवारते लिबास नही ।
बे लगाम तक़नीक़, और बदहबास तरक्की
बेशुमार ख्वहिशों कि है बूझती प्यास नही ।
न बुजुर्गो की इज्जत है ,न रिश्तों हिफाजत
पुरानी चीजें अब आती इनको रास नही।
क्या कहें अजय अब इस दौरे बदनसीब को
अपनी तबाही का जिसे ज़रा एहसास नही ।
-अजय प्रसाद
किसी तारीफ़ का हूँ मै मोहताज नहीं
लोग करेंगे कल ज़रूर,भले आज नहीं ।
नयी सोंच अपनाने में वक़्त तो लगता है
यकमुश्त ही बदलते रशमों रिवाज़ नहीं ।
जाने कितने फनकार गुजरे गुमनाम ही
झेल सका जिनको कभी ये समाज नहीं ।
अंजाम मोहब्बत का था इल्म पहले ही
आरज़ू तो की मगर किया आगाज नहीं
कितने मतलबपरस्त हो तुम भी अजय
अपनी गज़लों पर किया कभी नाज़ नहीं
-अजय प्रसाद
आँखों को झील,चेह्रे को कंवल नहीं कहता
मुहब्बत से लबरेज़ कोई गज़ल नहीं कहता ।
मेरी रौशनाई है हक़ीक़त के पसीने से बनी
कभी हुस्न के ज़ुल्फों को बादल नहीं कहता ।
बदहाल तक़दीर,मेहनत मशक़्क़्त की तस्वीर
फटेहाल नौजवाँ को प्रेमी पागल नहीं कहता ।
ज़ुर्म लगती हैं जरूरतें, दम तोड़ती हैं उम्मीदें
गुरबते ज़िन्दगी में होगी खलल नहीं कहता ।
चीख रही है खामोशी से,खुदाई भी खुद्दारी में
जितेगी सच्चाई अंत में,आजकल नहीं कहता ।
मैं भी तो हूँ आखिर एक आदमी ही अजय
करूंगा हमेशा उसुलों पर अमल नहीं कहता
-अजय प्रसाद
आइना मुझ से अक़्सर ये सवाल करता है
कौन अब इस घर में तेरा ख्याल करता है ? ।।
कौन सुनता है भला चिखें तेरे नसीहतों की?
क्यूँ बेवज़ह ही फिर तू ये बवाल करता है ? ।।
उम्र ढल गई शबो-रोज़ जुगाड़ के ढलानों पे
जो मिला नही ,उसका क्या मलाल करता है?
तकसीम हो के रह गया तू अपने औलादों मे
वक्त भीअब तूझे टुकड़ों में इस्तेमाल करता है ।
सांसों को है इन्तज़ार अब आखिरी नेमत का
देखें खुदा किस दिन मुझे मालामाल करता है ।
-अजय प्रसाद
मतला,मक़ता,रदीफ और काफिया मेरे खिलाफ
बहर ने मेरी गज़लों को कर दिया मेरे खिलाफ ।
देखा जो लहजा मेरी तल्ख हकीकत बयानी का
हो गई हुस्न और इश्क़ कि दुनिया मेरे खिलाफ।
न शमा, न परवाने है ,न आशिक,न है ज़िक्रे मय
यूँही नही है सागर और साकिया मेरे खिलाफ ।
नजाकत न शोखी,न उल्फत न है ज़िक्रे ज़वानी
भला क्यूँ न हो फूलों का रसिया ,मेरे खिलाफ ।
हश्र जो देखा अजय वक्त ने अपनी बर्बादी का
रूठ कर नाकामियों को रख दिया,मेरे खिलाफ ।
-अजय प्रसाद
मेरी बात
गज़ल मै बंदिशो अल्फाज से नहीं कहता
फक़त शायरी के लिहाज़ से नहीं कहता ।
कोशिश है कि तबीयत मे लाऊँ तबदीली
महज निभाने को रिवाज़ से नहीं कहता ।
मुझे खौफ ज़रा नहीं जान जाने का यारों
कभी सच को दबी आवाज से नहीं कहता ।
सुन कर जिसे इंसानियत को लग जाए बूरा
गज़लो मे ऐसी बातें समाज से नहीं कहता ।
मेरा माज़ी रहता है मुझसे अक्सर खफ़ा सा
जो गूजरी हम पर कल,आज़ से नहीं कहता
-अजय प्रसाद
इंकलाब ढूंढता हूँ
सवाल जिनका है नहीं वो जवाब ढूंढता हूँ
मैं अपने अंदर ही इक इंकलाब ढूंढता हूँ ।
गर हूँ जिंदा तो कोई हलचल क्यों नहीं हैं
जो उमड़ता था मुझमे वो सैलाब ढूंढता हूँ ।
वो जोशोजुनूं,वो फिक्रो -फन, वो रवानगी
बेखौफ धडकनें और दिले बेताब ढूंढता हूँ ।
इंसान होकर इंसानियत को कैसे भूल गया
जेहन की जमीर जगाने को अज़ाब ढूंढता हूँ ।
हार जाती है हक़ीक़त हर बार लिखा हो कहीं
“सत्यमेव पराजय” की वो किताब ढूंढता हूँ ।
-अजय प्रसाद
क्रिकेट देखिए
भूल कर हर गम क्रिकेट देखिए
होते रहेंगे सितम क्रिकेट देखिए ।
भूख,गरीबी,जुर्म और बेरोजगारी
सब कुछ है वहम क्रिकेट देखिए ।
रोना-धोना फ़िर सरकारें कोसना
फुटे आपके करम क्रिकेट देखिए ।
दोस्तों, है उम्मीद पे दुनिया कायम”
अच्छा है ये भरम क्रिकेट देखिए ।
चौके-छक्के के साथ ये नंगा नाच
होकर आप बेशरम ,क्रिकेट देखिए ।
-अजय प्रसाद
मेरी आँखों में तेरे ख्वाब रहने दे
उम्रभर को दिले बेताब रहने दे।
कुछ पल को ही सही ,मान मेरी
मुझे अपना इंतखाब रहने दे ।
सारे नजराने ठुकरा दे गम नहीं
तेरे हाथों में मेरा गुलाब रहने दे ।
जानता हूँ राज़ तेरी खामोशी का
सवाल तो सुन ले,जबाब रहने दे ।
अब तो हक़ीक़त का कर सामना
सपनों से निकल, किताब रहने दे ।
By -अजय प्रसाद
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बच्चे अब वक्त से पहले समझदार हो गए
बड़े बुजुर्ग भी घर मे दर किनार हो गए ।
इस कदर जब्त कर लिया मोबाईल ने हमे
जुबां हासिये पे और अंगूठे सरदार हो गए ।
खेल, खिलौने,बाजा, मोटर गुड्डे-गुड़िया
इंटरनेट ओ विडियो गेम के शिकार हो गए ।
होली,दीवाली,ईद,बकरीद,क्रिसमस भी अब
फेसबुकओव्हाट्स एप्प, के त्योहार हो गए ।
सियासत मे साम्प्रदायिकता देख के अजय
लगता है मजहब इन्सानो के शिकार हो गए ।
-AJAY PRASAD
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सुबह ,शाम,दिन और रात खफा है
खुश देख मुझे मेरे हालात खफा हैं ।
जिंदगी पे तंज करती मेरी गजलों से
हुस्न और इश्क़ के जज्बात खफा हैं ।
कैसे जिंदा हूँ इन हादसों के बाद भी
अपनी नाकामियों से वफात खफ़ा हैं ।
आंखों में आसूँ भी आने से कतराते हैं
मायूस हो कर मेरे मुश्किलात खफ़ा हैं ।
हद कर दिया अजय तूने जिंदादिली मे
हँसी में छुपे तेरे गम-ए-हयात खफ़ा हैं
-अजय प्रसाद
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AJAY PRASAD
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803216
मेरी उम्मीदों पर खरा उतरेगा न ?
मुझसे बिछड़ कर तू बिखरेगा न ?
जुदा हो कर मरना जरूरी नहीं है
मगर जिंदा रहना तुझे अखरेगा न ?
न याद करना कभी,न आसूँ बहाना
हाँ,पर चाँद रात को आहें भरेगा न ?
कोई इल्जाम तुझ पर न आने दूँगा
तू मेरा हौसला अफजाई करेगा न ?
अब खुदा जाने तेरे दिल में क्या है
अजय अपने दिल की ही करेगा न ?
-अजय प्रसाद
तेरी फिराक़ के लम्हे शुमार करते हुए
थक चुका हूँ ख्वाबों से प्यार करते हुए ।
कभी तो आ,मुक्कमल कर दुनिया मेरी
ऊब गया दिल भी इन्तजार करते हुए ।
फिर वही फ़ीकी फ़ीकी सी रह गई ईद
जल गई आँखें चाँद का दिदार करते हुए ।
गले मिला सबसे पर ज़ेहन से ज़ुदा रहा
छल गया गम खुशी का इज़हार करते हुए ।
सुबह सजदे में,शाम दोस्तों में ,कटी रात
मगर खामोश खुदा से तकरार करते हुए ।
-अजय प्रसाद
शिकार मत होना
गलतफहमियों का शिकार मत होना
मानसिक रूप से बीमार मत होना ।
दिलो-दिमाग महफूज़ रखना है अगर
बस इश्क़ मे खुद से बेज़ार मत होना ।
कोशिशें दुशमन भले हो कामयाबी कि
बुजदिल , बेबस और लाचार मत होना ।
फ़ैसला लेने में यहाँ पसीने छूट जाते हैं
अल्पमत में गठित सरकार मत होना ।
शख्सियत बुलंद गर है करना जहां में
झुठा, फ़रेबी, स्वार्थी व्यव्हार मत होना
-अजय प्रसाद
हर दौर में ही इंकलाब होतें हैं
जब भी ज़ुल्म बेहिसाब होतें हैं ।
छुपे रहते हैं आंधियाँ हवाओं में
जैसे समंदर मे सैलाब होतें हैं ।
रोज़ आते हैं बच्चे झोपड़ियों से
कहाँ हाथों में किताब होतें हैं ।
महफूज़ महबूबा है मुहब्बत में
जैसे काँटो में गुलाब होतें हैं ।
गर हो जाए रहमत खुदा की
तो ज़र्रे भी आफ़ताब होतें हैं ।
नींद जब हो खफ़ा रातों से
खतरे में हर ख्वाब होतें हैं ।
-अजय प्रसाद
आज़ाद गज़ल
कुछ के लिए मै खास लिखता हूँ
कुछ के लिए बकबास लिखता हूँ ।
हाँ सच ही कहा है जनाब आपने
खो कर मैं होशोहवास लिखता हूँ ।
भला कैसे हो मेरी शायरी अदब में
हो कर जो मै बदहवास लिखता हूँ ।
उतर आती है कागज पे आँखों से
सच को मैं बे-लिबास लिखता हूँ ।
जमाना ज़रूर ज़ुल्म ढायेगा मुझ पे
समंदर के हिस्से में प्यास लिखता हूँ ।
-अजय प्रसाद
अवाम के लिए है!
मेरी गजलें अदीबों नहीं ,अवाम के लिए है
उनके जज्बातों को देने पहचान के लिए है ।
जिन्हें ढूंढना हो मज़ा वो महफिलों में जाएँ
मेरी लेखनी तो बस जिंदा वियाबान के लिए है ।
मुझे पढनें वाले बेहद मामूली हों शक़ नहीं है
मगर उनकी सोंच बेहतर हिन्दुस्तान के लिए है ।
वक्त के मुहँ पर थूक कर जो है जिंदा यहाँ
उन बदनसीबों की मेहनत धनवान के लिए है ।
मोह,माया,छ्ल,कपट,हिंसा व लोभ के बाद
दिल मे जगह अब कहाँ सच्चे ईमान के लिए है ।
-अजय प्रसाद
तेरी रहनुमाई मुझे मंज़ूर नहीं
खुदगर्ज़ खुदाई मुझे मंजूर नहीं ।
और सब कुछ तो ठिक है मगर
खुशामदी बड़ाई मुझे मंजूर नहीं ।
भले गुजर जाए मुफलिसी में
हराम की कमाई मुझे मंजूर नहीं ।
रखता हूँ वफादारी सबसे पहले
कहलाना हरजाई मुझे मंजूर नहीं ।
छीन कर हक़ किसी गरीब का दे
वो खुशियाँ पराई मुझे मंजूर नहीं ।
गर चाहा,तो हासिल करने के लिए
मुहब्बत में जुदाई मुझे मंजूर नहीं
भले न मिले एशोअराम शायरी से
बिकी हुई रौशनाई मुझे मंजूर नहीं
-अजय प्रसाद
गरीबी आजकल
चर्चे में बहुत है देखिए गरीबी आजकल
बना हुआ है मुद्दा बस चुनावी आजकल ।
गरीब,किसान और बेरोजगार नौजवान
नेताओं के बने हैं बेहद करीबी आजकल ।
कल तक जो थे हमारे लिए बस खट्टे अंगूर
बता रहें खुद को अवामे हबीबी आजकल ।
नुमाइंदे हर तंज़ीम के होतें है बेहद शातीर
दिखते हैं मगर शरीफ़ ये फरेबी आजकल ।
डिग्रीयां मेरी सारी दोस्तों धराशायी हो गई
बेच रहा हूँ देखिए मैं गरम जलेबी आजकल ।
-अजय प्रसाद
सुनकर मेरी बातें देखिए उनको गुस्सा आ गया
शायद उनके ही करतूतों का तज़किरा आ गया ।
दो दिनों तक तफतीश करके ही खामोश हो गए
लगता है थाने में आज रिश्वत का हिस्सा आ गया ।
जो मुस्किलें थी वो वहीं की वहीं रह गई महफूज़
फ़िर लोगों के लिए वोट देने का मसला आ गया ।
वही हुजूम ,वही जुलूस,वही वादों की खुमारी है
वही जुमले,वही बातें,वही झूठा फरिश्ता आ गया।
न इमानदारी की कद्र है न मजलूमों की ही फिक्र
लगता है इन्सानों के लिए अब वक्त बुरा आ गया ।
– AJAY PRASAD
धूलेंगे पाप क्या शाही स्नान से ?
बात करते हो बिल्कुल नादान से ।
मोह,माया ,छ्ल,कपट और लोभ
क्या छूट पायेगा आज इंसान से ?
बेहद मुश्किल है दोस्तों जान लो
लड़ना अपने अंदर के शैतान से ।
बचाना होगा खुद को खुद से ही
नहीं आयेंगे फरिश्ते आसमान से ।
लाख कर लो जतन रुकने का यहाँ
तय है जाना सबको इस जहान से ।
-अजय प्रसाद
हूँ जिस हाल में ,या खुदा न रहा करे कोई
मेरे हक़ मे खुदा के लिए न दुआ करे कोई ।
आखरी लम्हे तक कोशिशें रहेंगी जारी यूँही
हूँ जिस तरह से नाकाम न हुआ करे कोई ।
ज़ख्म देकर वो खुश रहे तो कुछ बात बने
मगर इतनी बेरूखी से तो न दवा करे कोई ।
वफ़ा के नाम से ही सहम जाये जेहनो बदन
इतनी बेरहमी से दोस्तों न दगा करे कोई ।
हो सकी न हसरतें कभी हक़ीक़त में तब्दील
किमत ख्वाबों की अजय न अदा करे कोई ।
-अजय प्रसाद
ऐसा नहीं है कि तेरी रहमतों सिला नहीं
ये बात और है जो चाहा ,वो मिला नहीं ।
इज़्ज़त,दौलत,शोहरत,दोस्ती,वफा मिली
बस फूल मेरे दिल का कोई खिला नहीं ।
थी मेरी तक़दिर को तक़लीफ़ मुझसे ही
मुझे किसी और से रहा कोई गिला नहीं ।
साथ दिया है अक्सर हमारे हौसलों ने
लाख मिले फरेब पर मैं कभी हिला नहीं ।
हाँ ठोकरें खायीं है हमने ज़िंदगी में बहुत
पर छोड़ा ज़िंदादिली का सिलसिला नहीं ।
-अजय प्रसाद
हाल =present माज़ी =past
आजादी के साथ-साथ मिली है जिम्मेदारी भी
बेहतर और बुलंदी में हो खुद की हिस्सेदारी भी ।
कोशिशों को अपनी ले जानी है कामयाबी तक
देश निर्माण में हो सबकी थोडी सी भागीदारी भी ।
नयी पीढ़ी की तरक्क़ी से है हमे कोई एतराज नहीं
गर हाल के साथ ही करें माज़ी की खातिरदारि भी ।
आओ हमसब मिलकर ऐसा बनायें माहौल देश में
जहां खुशहाल रहें हमेशा राजा और भिखारी भी ।
ज़ुर्म न हो ,आबरू न लुटे,भ्रस्टाचार मुक्त हो भारत
जनता व नेता के साथ इमानदार हो कारोबारी भी ।
-अजय प्रसाद
रंग जीवन के जम गए काई जैसे
रोज़ बिछ जाता हूँ मै चटाई जैसे ।
जिंदगी भी यारों कमाल करती है
बढ़ाती है गम हमारे महंगाई जैसे ।
खतरे में है शायद खैरियत मेरी भी
पूछतें हैं हाल आजकल भाई जैसे ।
मजे में हैं मेरे मुल्क की मुश्किलातें
रहते हैं सब मसले घर जमाई जैसे ।
खर्च रहा हूँ उसुलों को मजबुरी में
लूट रही हो मेरी गाढ़ी कमाई जैसे ।
-अजय प्रसाद
लौट आया हूँ कुछ दिनों के लिए अपने शहर में
देखूँ कितना बदला गया हूँ मै लोगों की नज़र में ।
रास्ते ,गलियाँ, चौराहे,बाज़ार वगैरह सब वही है
बस आ गई है बेहद तब्दीली नये दौर के बसर मे।
अब न वो लहजा, न सलीका,न ज़ज़्बे मोहब्बत
मिलते हैं,मुस्कुराते है पर खलीश लिये ज़िगर में ।
इस कदर काविज़ हो गई खुदगर्ज़ी इबादतों में
आती ही नहीं दुआएँ अब तो किसी असर में ।
सीख लो चलन अजय अब तुम भी नए दौर का
ढूंढना बेकार है ज़ाएका-ए-अमृत यूँ जहर में ।
-AJAY PRASAD
वतन के लिए बदन नही ,जज्बाओजेहन भी हो
निस्वार्थ सेवा,त्याग,व भक्ति से प्रेरित मन भी हो ।
गाँधी ,सुभाष ,नेहरू ,पटेल या अंबेदकर ही नहीं
खुदीराम,मंगल,भगत व आज़ाद के चिंतन भी हो ।
लक्ष्मीबाई,सरोजिनी,कस्तूरबा,साबित्री,कामा जैसे
फूलों से खिलता और महकता हुआ चमन भी हो ।
व्हाट्सप ,फेसबुक ,ट्विटर के शिकार नौजवानों
दिल में तुम्हारे देशप्रेम की थोड़ी सी लगन भी हो ।
गाना राष्ट्रीय गीत न फहराना तिरंगा ,पर याद रहे
बस हर काम से पहले दिल में ख्याले वतन भी हो ।
-अजय प्रसाद
AJAY PRASAD ?9006233052
मीर,मोमिन ,गालिब दाग या दुष्यंत नही
शायर तो मै हूँ ,मगर मशहूर अत्यंत नही ।
कब्र,चिता,शमशानओअर्थी,हमसे कहते हैं
इस धरा पर रहा है जिंदा कोई अनंत नही ।
मौसम,मिज़ाज,वक़्त और हालात ,सुन यार
रह सकता है बुरा मगर जीवन पर्यन्त नही ।
बचपन से ही जो उठाते है बोझ जवानी का
पतझड़ उनके होतें हैं कदरदान,बसंत नही ।
जान गई किसी मजदूर की ईंट ढोते- ढोते
न मीडिया ,न बहस,मुद्दा था ही ज्वलंत नही ।
-अजय प्रसाद
आदमी भला हो अब तन्हा क्योंकर
जब है व्हाट्सप ‘फ़ेसबुक-ओ-ट्वीटर ।
चैटिंग,एस एम एस और विडियो कालिंग
कम से कम तन्हाई से है कुछ तो बेहतर ।
राशन सिर्फ़ दाल चावल या आटा नही है
नेट पैक लेना भी है अब सिरियस मैटर ।
सेल्फ़ी लेना और स्टेटस अपलोड करना
है नई पीढ़ी के लिए ज़रूरी काम दिनभर ।
पहले परिवारों में सब करते थे रोज़ गपशप
अब रिश्ते भी निभाने लगे हैं मोबाईल नंबर ।
-अजय प्रसाद
इश्क़ कि यारों दुनिया ही अजीब है
शख्सियत अमीर और शख्स गरीब है ।।
लैला-मजनू,शीरी-फरहाद,सोनी-महिवाल
जिंदगी भर जुदा और मर कर करीब है ।।
जख्म,जिल्लत,दौलत,शोहरत,दवा या दुआ
किसको क्या मिलेगा ये उसका नसीब है ।।
श्राप को भी वरदान मे बदल देता है इश्क़
नेमत उसे मिलता है,जो खुदा का हबीब है ।।
अजय किससे तुम वफा की आश करते हो
वो क्यूँ करेगा मदद,जो तुम्हारा रकीब है ।।
-अजय प्रसाद
AJAY PRASAD 9006233052
बुलंद इरादों को अंजाम चाहिए
नौजवानों के लिए काम चाहिए ।
सब रह सकें जहाँ निडर होकर
मुल्क में ऐसा इन्तेजाम चाहिए ।
भ्रष्टों,मुजरिमों व झूठों को सज़ा
और सच्चाई को इनाम चाहिए ।
थक चूके हैं जो बोझ उठाते हुए
उन मजदूरों को आराम चाहिए ।
बच्चे या बुजुर्ग भटकें न दर-दर
सबके लिए उचित मुकाम चाहिए ।
चेहरे पे सबके के जो ले आए खुशी
गज़लों में अजय ऐसा पैगाम चाहिए ।
-अजय प्रसाद
AJAY PRASAD
Easy Monthly Instalment
भला हो इस दौर में ई एम आई का
लुत्फ ले रहें हैं थोड़ी सी कमाई का ।
खुशहाल जो चाहतें रखना बीवी को
भूले से भी न करे ज़िक्र हरजाई का।
अब तो टाइप,कॉपी,पेस्ट सेल्फी ही है
काम क्या है कलम, दवात ,रौशनाई का ।
पैर छूना ,गले लगना, मिलना-जुलना
छोड़ीये ,अब दौर है तक़नीकी बधाई का ।
ऐशो-आराम की लत ने बीमार कर दिया
रोज सुबहो-शाम नाम लेते हैं दवाई का
. ***
क्या मिलेगा भला मुझे फरियाद कर के !
जब खुश हो खुदा ही बरबाद कर के ।
अब न लौटेंगे कभी इस गमे हयात में
जा रहा हूँ मैं बदन को आज़ाद करके ।
लुट गई हस्ती सरे राह चलते-चलते
देखा है मैंने रास्ते भी आबाद करके ।
भला हो तेरा मेरी किश्ती डुबोने वाले
ले मै चला तेरे मन की मुराद करके ।
किसको दुःख है अजय तेरे मरने का ?
कौन सा तू गया है कुछ इजाद करके ?
-अजय प्रसाद
AJAY PRASAD,9006233052
रिसालों के लिए जो है कायदे कानून
तु रख अपने पास
नये रचनाकारों को ठुकराने का जूनून
तु रख अपने पास।
नही चाहिए मुझे तेरी रहमत ऐ खुदा
हद से ज्यादा
बाकी, दे कर मेरे हक़ की दो रोटी-ए-जून
तु रख अपने पास ।
मुझे लिखनी है गज़ल तो मै लिखूंगा अपने
मिज़ाज से ही
मतला,मकता,रदीफ़ काफिया ,बहर-ए-कानून
तु रख अपने पास।
बस इतना बता कि मेरी मुफलिसी महफूज़
है ना मुस्तकबिल मे ?
फिर चाहे जो भी लिखा हो,तेरा ये मज़मून
तु रख अपने पास ।
मुझको आने लगा है मज़ा अपनी गुरबत,
बेचैनी ओ बदहवासी में
इज्जत,दौलत,मुहब्बत,शोहरत,दिलेसुकून
तु रख अपने पास ।
-@अजय प्रसाद (AJAY PRASAD)
“पढ़ी रचनाएँ आप ने तो मेरा काम हो गया
की आपने तारीफें तो मेरा नाम हो गया ।
अब मुझे मरने का भी कोई गम न होगा
कुछ पल को सही दिल मे मुकाम हो गया ।
मैं क्या जानूं छ्न्द और बहर के उसुलों को
देखा,सुना,महसूस जो किया कलाम हो गया ।
मेरे लिए तो खयाल बेहद अहम है गज़ल में
मगर अदिबों की नज़र में मैं बदनाम हो गया ।
न माज़ी से गुरेज़ न मुस्तकबिल से परहेज है
मेरी शायरी का शिकार हाले अवाम हो गया ।
फक़त नाम से ही मैं ‘अजय ‘रहा हूँ दोस्तों
हारना हर हाल में खुद से मेरा इनाम हो गया ।
-अजय प्रसाद
तक़सीम हुआ था मुल्क मसाइलों के लिए क्या
आज़ादी हमने पाई इन काहिलों के लिए क्या ।
देते खोखले आश्वासन,बहाते हैं घड़ियाली आसूँ
जाँ गँवाई जवानों ने इन जाहिलों के लिए क्या
दफन है दफ्तरों में तरक्की अनगिनत गावों की
किए थे वायदे फक़त फाइलों के लिए क्या ।
-अजय प्रसाद
बनाएँगे हम सरकार ,जनता के हित के लिए
भले न मिले बिचार ,जनता के हित के लिए ।
गफ़लत में सत्ता कहीं हाथों से निकल न जाये
हम ज़मीर को देंगे मार ,जनता के हित के लिए ।
शायद फ़िर किसी से किसी को शिकायत न हो
मिल के करेंगे भ्रष्टाचार ,जनता के हित के लिए ।
भांड़ में जाए नैतिकता,जो दूर करे हम से सत्ता
हमें नहीं इसकी दरकार ,जनता के हित के लिए ।
पार्टियाँ सारी हैं बेहद मशगूल मतलबपरस्ती में
हो कौन चोरों का सरदार,जनता के हित के लिए ।
-अजय प्रसाद
“सौगात ”
खुदा मुझे तेरी खैरात नहीं चाहिए
मुफ्त में कोई सौगात नहीं चाहिए ।
गर हो सके तो बस रहम कर
खुदगर्ज़ की औकात नहीं चाहिए ।
मिलना है तो आ खुल कर मिल
परदे में मुलाकात नहीं चाहिए ।
मुल्क में मुश्किलात , है अलग बात
मगर नाजुक सी हालात नहीं चाहिए ।
इबादत में पाकीजा ईमान लाज़मी है
दिखाबे के लिए ज़कात नहीं चाहिए ।
-अजय प्रसाद
कबूलनामा
न है इल्मे अरूज़, न शायरी का हुनर
गजलें मेरी हैं संजीदा मगर बे-बहर ।
न काफिया दुरुस्त है न जायज़ रदीफ़
मतला और मकता भी हैं खुद बेअसर ।
न फिक्रे आशिक़ी है न जिक्रे माशूक़
शायरी मेरी है हुस्नो-इश्क़ से बेखबर ।
न शमा,न परवाने,न है शिकवाए रक़ीब
न तन्हाई,न जुदाई, न बेवफा सितमगर ।
तल्खियॉ ही तल्खियॉ हैं और बस मैं हूँ
बे-मंजिल रास्ता ,है काँटों भरी रहगुजर ।
-अजय प्रसाद
काश !
कभी कभी मैं सोंचता हूँ
आसपास जानवरो को देख कर
काश ! मैं भी आदमी न हो कर
अगर जानवर होता ।
तो कितना बेहतर होता ।
न भूत-भविष्य की चिंता
न वर्तमान से खफ़ा ।
न धर्म,न जाति,न कोई रंगभेद
न ऊँचे का दंभ न नीच होने का खेद ।
न करता किसी की चापलूसी
न किसी से किसी की कानाफूसी ।
न ओहदे का अहंकार ,न कोई भ्रष्टाचार
न रैली,न चुनाव, न वोट ,न कोई सरकार ।
न धन की लालसा, न छ्ल ,कपट प्रपंच
न नेता,न अफसर,न मुखिया,न सरपंच ।
न रिश्तों में खटपट ,न रिश्तेदारी की झंझट
न नौकरी,न व्यापार,न पढ़ालिखा बेरोजगार ।
न फ़ैशन की चाह, न लोक लाज़ की परवाह
न ख्वाहिशें,न फ़रमाइशें ,न ज़ोर,न आज़माईशें ।
न सुख में इतराना, न दुख में आँसू बहाना
हर दिन ,हर हाल में बस अपने दम पर जीना ।
कुदरत के करीब,न कोई अमीर, न कोई गरीब
न है कोई खुशनसीब ,न है कोई बदनसीब ।
सब जी रहें हैं ,जो भी पैदा हुए जिस हाल में
न सजदे,न शिकायतें,न किसी भी मलाल में ।
(क्रमशः)
-अजय प्रसाद
लुप्तप्राय के कगार है गौरया
बेबस और लाचार है गौरया ।
खो गई है उसकी चहचहाहट
आजकल विमार है गौरया ।
नहीं आती है आँगन में हमारे
बस एक इन्तजार है गौरया ।
मौन है मुंडेर भी छतों के सारे
जैसे रुठा हुआ यार है गौरया ।
चाहे लाख हम दिवस मना लें
हुई हमारी शिकार है गौरया ।
हम माने या न माने प्रकृति की
सबसे बड़ी उपहार है गौरया ।
-अजय प्रसाद
आ गया जब ऊँट पहाड़ के नीचे
इल्म हुआ तब वो है हार के नीचे ।।
काट रहा हूँ चक्कर दफ्तरों के मैं
हर काम हो रहा है जुगाड़ के नीचे ।।
कुछ कम्बखत कमीने हैं ही ऐसे
सुनते हैं सिर्फ़ वो लताड़ के नीचे ।।
जला कर आशियां भी चैन कहाँ
जाने क्या ढूंढते हैं उजाड़ के नीचे ।।
ढूंढते हो अजय अपनी किताबे गज़ल
शायद दबे पड़े हों कबाड़ के नीचे
-अजय प्रसाद
एक घर में यहाँ कई दीवारें हैं
जैसे रिश्तों के दरमियां दरारें है ।
बस साथ हम नहीं रह सकते
हाँ दिल से आज भी तुम्हारें हैं ।
ज़र,ज़ोरू,ज़मीन की खातिर
अक़्सर टूट जाती परिवारें हैं ।
हद से ज्यादा कुछ ठीक नहीं
समझो कुदरत के जो इशारें हैं ।
खुदगर्ज़ी से किये गये वायदे
अक़्सर भूल जाती सरकारें हैं ।
सोतें हैं फुटपाथ पे रातों को
बेघर अनाथ ये बच्चे बिचारें हैं ।
क्यों न हो मलाल जुदाई का
कई बरसों साथ हमने गुजारें हैं
-अजय प्रसाद
आइये हम अपको सच बताते हैं
जिक्र नहीं कहीं वो सब दिखाते हैं ।
कैसे ,क्यों और कब हुआ हादसा
पूरी बात आज और अब बताते हैं ।
हम किसी घटना रोकते ही नहीं
पहले उसका पूरा विडियो बनाते हैं ।
चाहे कोई मर रहा या मार रहा हो
हर एक वाकये की खबर बनाते हैं ।
कितना,कैसे ,कहाँ तक है दिखाना
सोंच समझ कर ही न्यूज चलाते हैं ।
चैनल टिका है विज्ञापन के दम पे
इसलिए तो न्यूज कम दिखाते हैं ।
-अजय प्रसाद
खुद ही छपवा कर खुद बेच रहे हैं
कर हम सहित्य की देख रेख रहे हैं ।
फेसबुक,व्हाट्सप ट्वीटर के जरिए
महफ़िल औ मुशायरे में हो पेश रहे हैं ।
एक से बढ़कर हैं यहाँ मंच उप्लब्ध
ओपेन माईक पर रोटियाँ सेंक रहे हैं ।
साझा संकलन,काव्य संग्रह के नाम
प्रकाशक रचनाकारों से ऐंठ रहे हैं ।
तू कैसे महरूम रह गया अजय यहाँ
नये दौर की मूकाविल तेरे शेर रहे हैं ।
-अजय प्रसाद
मुझे तुमसे मुहब्बत न थी, न है, न होगी
खुद से ही वगावत ,न थी ,न है, न होगी ।
लाख करे कोशिश ये ज़माना मिटाने की
मगर उसकी हैसियत न थी, न है ,न होगी ।
रोज़ तोड़ता रहता हूँ मैं अपने उसुलों को
जहां में इसकी जरूरत न थी,न है,न होगी ।
न सजदे में गये कभी ,न शिकवे किये पर
खुदा से मेरी अदावत न थी, न है ,न होगी ।
हाँ किया है मेरा इस्तेमाल लोगों ने अक़्सर
पर मुझे किसी से नफरत,न थी,न है,न होगी
-अजय प्रसाद
दिल मेरा बड़ा सहम सा जाता है
जब कोई मुझसे प्यार जताता है ।
इस कदर है उसे नफरत फूलों से
काँटे वो अब खुद ही उगाता है ।
जब नहीं इल्म है अंजामे इश्क़
क्यों तू अंधेरे में तीर चलाता है ।
महफूज़ रहती है औकात उसकी
खुदा जिस पे भी रहमत लुटाता है ।
हौसले तेरे तो हैं नहीं टुटे अभी
अजय इम्तहान से क्यों घबराता है
-अजय प्रसाद
कीमत मेरी कुछ भी,आपकी नज़र में नहीं
क्योंकि कहता हूँ मैं गज़लें बहर में नहीं ।
खैर आप से नही कोई शिकवा ओ गिला
मेरी गज़लें आती अरूज़ के असर में नहीं ।
चाहता हूँ मैं भी लिखना बन्दिशों के साथ
लेकिन मेरी सोंच कायदे के कहर में नहीं ।
शायद गुजर जाऊँ गुमनाम कहीं रास्ते पर
इल्म हैआयेगी कभी मंज़िल सफ़र में नहीं ।
ज़ब्त हक़ीक़त ने की है मेरी शेर ओ शायरी
कहा वही है जो कभी आया खबर में नहीं ।
-अजय प्रसाद
खुदा की मुझ पर इनायत यही है
करता कोई मुझसे नफरत नही है
लाख दर्द मिले हैं दुनिया वालों से
मुझे किसी से शिकायत नही है ।
किसने है किया मेरे हक़ में बुरा
याद रखना मेरी रवायत नही है ।
मिलता हूँ सबसे मुस्कुरा कर मै
उदास रहना मेरी आदत नही है ।
ज़िंदगी मेरी मुझसे रहती खफ़ा है
और मौत को मुझसे मुहब्बत नही है ।
-अजय प्रसाद
चलो अच्छा हुआ बला टल गई
खुबसूरती उसकी मुझे खल गई ।
जाने क्यों मैं फिदा हुआ ही नहीं
गिरते-गिरते ज़िंदगी संभल गई ।
बददुआ रकीबों की हो गई कबूल
वक्त रहते ही दिल से निकल गई ।
दूर से कर रही थीं नज़रे इनायत
पास आते आते नियत बदल गई ।
शुक्र है खुदा का यारों बच गया मै
उसकी फितरत ही उसे छ्ल गई ।
-अजय प्रसाद
नये दौर में नये मिज़ाज के साथ
तोड़ रिश्ते कल का,आज के साथ ।
हुस्नोईशक़ से परे,हक़ीक़त से भरे
कहूंगा गज़ल नये अंदाज़ के साथ ।
तारीफें नहीं तो ,तन्कीदें ही सही
है मुझे कबूल ,पर एतराज़ के साथ ।
आँखें मूंद कर आशिक़ी मंजूर नहीं
शायरी मेरी चलेगी,समाज के साथ ।
भले गूजर जाऊँ गुमनाम गम नहीं
नहीं चलना अजय रिवाज के साथ ।
-अजय प्रसाद
सर अपना पत्थर पे मार रहा हूँ
रोज़ खुद को ही सुधार रहा हूँ ।
वक्त माँग रहा हरपल सांसे मेरी
कर्ज ज़िंदगी की मैं उतार रहा हूँ ।
पढ़ लेता है हर कोई चेह्रे से मुझे
सबके के लिए मैं अखबार रहा हूँ ।
अजीबोगरीब है शख्सियत मेरी
औरों को फूल ,खुद खार रहा हूँ ।
मसअले मुझपे मेहरबाँ रहे हमेशा
अजय मैं उनका शुक्रगुजार रहा हूँ ।
-अजय प्रसाद
एक हसरत मेरी हाथ मलती रही
ज़िंदगी छाती पे मूँग दलती रही ।
मै सितम उनके चुपचाप सहता रहा
खामोशी भी उन्हें,मेरी खलती रही ।
उनकी महफिल में मैं आज मौजूद था
रात भर ये शमा मुझ से जलती रही ।
होगी नज़रे इनायत वो मुझ पर कभी
दिल में ख्वाहिश यही मेरी पलती रही
वक्त ने तो दगा है दिया हर दफ़ा
ज़िंदगी बेसबब यूँ ही ढलती रही ।
उम्र भर दोस्तों मैं तरसता रहा
वो मेरे सामने ही बदलती रही
साथ उम्मीद के जागा मैं रात भर
शाम आकर अजय रोज़ छलती रही
-अजय प्रसाद
करके गंगा स्नान अपने पाप धो रहें हैं
सोंचते हैं गुनाह उनके माफ़ हो रहें हैं ।
पूजा-पाठ,दान और ध्यान,धरम ,करम
सारे दिखावे आजकल साथ हो रहें हैं ।
चुस कर खून गरीबों का बने हैं अमीर
वही लोग अब गरीबी का रोना रो रहें हैं ।
सियासत पे सितम जो वर्षो ढोते रहे थे
आज दिलों में नफरत के बीज बो रहें हैं ।
बदनसीबी हमारी अब क्या कहें अजय
लाश अपने अरमानों का आप ढो रहे हैं ।
– अजय प्रसाद
212 212
गज़ल
उम्रभर दर ब दर
ज़िंदगी बेखबर ।
मंजिलें हैं जुदा
रास्ते हम सफर ।
मन्नते है खफ़ा
हर दुआ बेअसर ।
क्या पता क्या खता
चल रहा शूल पर ।
सच बता क्या हुआ
क्या मैं था भूल पर ।
जुर्म है इश्क़ भी
सोंच कर प्यार कर
हार सकता नहीं
है अजय, तू अगर ।
-अजय प्रसाद
जैसी नियत
वैसी वरकत ।
छोड़ नफ़रत
कर मुहब्बत ।
दिल लगा कर
पाले जन्नत ।
धर्म ,मज़हब
बस है फितरत ।
आओ हम तुम
जोड़े रगवत ।
मिल के रहना
अपनी चाहत।
हम हैं जिंदा
उसकी रहमत ।
ज़िंदगी क्या
रब की नेमत ।
फ़िर अजय तू
कर ले उल्फत ।
-अजय प्रसाद
1222 1222
मुझे नाकाम रहने दे
अभी गुमनाम रहने दे ।
भले नफरत से देखे वो
मुझे बदनाम रहने दे ।
मेरी तकलीफें तो खुश हैं
अभी आराम रहने दे ।
पढूंगा मैं भी ,आँखों में
तेरा पैगाम रहने दे ।
ज़रा जी लूँ मैं गफ़लत में
अभी तू ,जाम रहने दे ।
खुशी में तेरी, खुश हूँ मैं
मुझे बे-नाम रहने दे
अजय तू भूल जा सब कुछ
हसीं ये शाम रहने दे ।
-अजय प्रसाद
गज़ल
2122
लम्हा गर हूँ
मुख्त्सर हूँ
इश्क़ से मैं
बे-खबर हूँ ।
हुस्न वालों
इक बशर हूँ
रास्तों का
हम सफर हूँ ।
आज भी मैं
दर ब दर हूँ ।
देख तो ले
किस कदर हूँ ।
हाँ ‘अजय’ मैं
हार कर हूँ ।
-अजय प्रसाद
तारीफ़ के लिए तरसते फ़नकार देखा है
गुमनामी में ही गुजरते कलाकार देखा है ।
ये और बात है वो मक़बूल हो नहीं पाए
लेखनी मगर उनकी बेहद दमदार देखा है ।
कभी किसी मंच पर उन्हें सुना नहीं गया
घर में भी खफ़ा उनसे परिवार देखा है ।
चाहता हूँ मैं आवाज़ उनके लिए उठाऊँ
जिनके लिए समाज में तिरस्कार देखा है ।
जाने कब ज़माना समझेगा ये हक़ीक़त
गलतफहमियां पाले हमने हज़ार देखा है ।
-अजय प्रसाद
रोजमर्रा के जद्दो-जहद में परेशान रहने दे
रहम कर रहनुमाओं मुझे बस इन्सान रहने दे ।
ये हिन्दू, ये मुसलमां,ये सिक्ख और ये ईसाई
मजहबी नाम पर ये वोटों की दुकान रहने दे ।
कब तक बेचेगा ज़मीर जम्हुरियत के बहाने
चैनो-अमन अहले वतन हिन्दूस्तान रहने दे ।
महफूज़ रहते हैं मजहब लोगो के दिलों में
कुरान मस्जिदों में ,मंदिरों में भगवान रहने दे ।
बहुत फिक्र है न तुझे अपने कौम के लोगों की
तो बस जिसकी जैसी है यहाँ पहचान रहने दे ।
-अजय प्रसाद
शिकवे, गिले, मलाल ,कुछ भी नहीं
इससे बुरा तो हाल कुछ भी नहीं ।
वक्त के साथ हालात बदलते ही हैं
तेरा और मेरा कमाल कुछ भी नहीं ।
देख कर आँखें मेरी वो सहम गए
मैने तो किया सवाल कुछ भी नहीं ।
फक्कड़ की कमाई बस है .खुदाई
वो हराम या हलाल कुछ भी नहीं
जां गई गरीब की गुरवत में गुमनाम
हुआ अजय वबाल कुछ भी नहीं ।
-अजय प्रसाद
मौशीकी पे करने बाले तंज आखिर नही है
कह सकता हूँ की आज वो हाजिर नही है।
इन्सान चाहे हो किसी भी मजहब का भले
है गर उसमे इंसानियत तो वो काफ़िर नही है ।
यकिन लीडरों के वादों पे करना है फ़ज़ुल
क्या इनकी हक़ीक़त जग पे जाहिर नही है ।
न लहजा,न लज्जत,न वो गीत न सँगीत
अब कोई नौशाद,शकील या साहिर नही है ।
जूझते हालातों से उलझ गई है गज़ल मेरी
शायरी-ए-मुहब्बत के हम माहिर नही है।
****
-AJAY PRASAD
TGT ENGLISH DAV PS PGC
BIHARSHARIF,NALANDA ,BIHAR
803216 ?9006233052
बाज़ार से तु वेज़ार क्यूँ है
खुद से इतना खार क्यूँ है ।
हसरतें तु हैसीयत में रख
पाले ख्वाहिशें हज़ार क्यूँ है ।
मुफलिसी महबूबा है तेरी
समझा , तुझसे प्यार क्यूँ है।
फिर से इंतखाब आने को है
जान,मेहरबाँ सरकार क्यूँ है ।
इनकी हस्ती है अजय तुझसे
वरना ये सांसें मददगार क्यूँ है।
-अजय प्रसाद
फक़त जिस्म नहीं एक जान है औरत
मर्द माने या न माने,महान है औरत ।
शोख़,चंचला, खूबसूरत सी एक बला
गर बेहद हसीन और जवान है औरत ।
दादी,नानी,माँ,बहन, बेटी हो या बीवी
घर और परिवार की कमान है औरत ।
हिम्मत,मेहनत, ईज्जत की प्रतिमूर्ति
धीरज,धर्म और घर की शान है औरत ।
मजहब,दीन,ईमान,इबादत ओ खिदमत
रामयण,गीता,बाईबल व कुरान हैऔरत
-अजय प्रसाद
अच्छा ! तो आप ईमानदार हैं
मतलब की पक्के गुनाहगार हैं ।
मत पूछिये हुजूर के रूतबे का
एक अदद सरकारी ओहदेदार है ।
शख्शियत ऊँची पर नीयत नीची
अमीरों के वजूद के मददगार है ।
वोट दिए हमने तो, भुगते कौन
आखिर ये हमारी ही सरकार है ।
बस मुसीबतों में काम नही आते
बैसे बहुत अच्छे सब रिश्तेदार है ।
यादों से कभी भी रिश्वत नही ली
तन्हाइयां मेरी बेहद ईमानदार है ।
कुछ तो कद्र करो अजय उनकी
तुम्हारी गज़लों के जो मददगार है ।
-अजय प्रसाद
बड़ी बेरहमी से जज्बात को दबाया मैने,
दिल की हर इक बात को है छुपाया मैने ।
तू मेरे दर्द रही कितनी बेखबर, लेकिन ,
रुबरु तेरे हरपल मगर मुस्कुराया मैने ।
झलक न जाए ईज़हार मेरी आखों से ,
तेरे चेहरे से निगाहों को हटाया मैने।
कोई उम्मीद न पनप जाए तूझे पाने की,
हर लम्हा समझा है तुझको पराया मैने ।
तेरी हँसी,तेरी खुशी,तेरी सलामती को,
अक़्सर दुआ को हाथ है उठाया मैने।
फूल सेहरा मे खिलाना था मुश्किल यारों
काँटो को ही बड़े प्यार से उगाया मैने।
दफन हो गई हसरतें हालात के कब्र मे,
थी मर्ज़ी खुदा की,खुद को समझाया मैने।
-अजय प्रसाद
***
मौत का मज़ा तो चखना पड़ेगा
कर्म का फल तो भुगतना पड़ेगा ।
तोड़ना गर है दुनियाँ के रस्मो को
जिगर फौलाद का रखना पड़ेगा ।
चाहते हैं आप मंजिल को पाना
राहे दुश्वारियों से उलझना पड़ेगा ।
आसां नही है दिल को समझाना
खुद से खुद को ही लड़ना पड़ेगा ।
लो आ गई फ़िर अजय याद उनकी
अश्क़ों से अब वजु करना पड़ेगा ।
-अजय प्रसाद
लाइक्स और कमेंट्स पे न जाइए
हुजूर मेरे टैलेन्ट को आजमाइए ।
लिखूंगा आपकी तारीफ़ में गज़ल
आप अपनी औकात पे तो आइए ।
कैसे छिड़कते हैं नमक ज़्ख्मों पे
मोहतरम जरा खुल कर बताइए ।
राज़ क्या है आपकी इनायत का
लिल्लाह ऐसे तो न हमें सताइए ।
इस कदर रहम दिली तौबा-तौबा
हमें दरिया दिली में न उलझाइए ।
शायरी का सिकंदर तो वो नहीं है
फिलहाल अजय को ही बुलाइए ।
-अजय प्रसाद
खायी है इतनी ठोकरें यार जिन्दगी मे
लगता है अब डर खुदा कि बन्दगी मे ।
है असर स्वछ्ता अभियान का यूँ यारों
ढूंढ रही सरकारें अब वोट भी गंदगी में।
इस कदर शर्मा-ओ-हया तरक्कीयाफ्ता है
होने लगे है लोग अब खुश शर्मिन्दगी में ।
सहरा से है लोग समंदर की आश लिए
गुजर गये कितनी हस्तियां इसी तृष्ण्गी में ।
हर हादसे के बाद होती है बयान बाजी
बस खोखलापन है नेताओ की संजीदगी में ।
-अजय प्रसाद
दिखती नही है यार वो मंजर अब तो
ज़मी दिल की भी हो गई बंज़र अब तो ।
है प्यार,अपनापन,वफ़ा कहाँ जिंदा यारों ?
दफन हो कर है लोगों के अंदर अब तो ।
कत्ल करने को काफ़ी हैं जुबां धारदार
बेहद सहमे-सहमे से है खंजर अब तो ।
कैसे कहें अभी है आवारगी महफूज़ मेरी
पैरों में है जिम्मेदरियों के लंगर अब तो
रिश्तों की है अजय इस कदर किल्लत
जिन्दगी लगने लगी एक खंडहर अब तो ।
-अजय प्रसाद
मेरी शायरी मुख्तलिफ है मेरे शेर,अलग है
अभी हासिल-ए-शोहरत मे देर , अलग है ।
अभी महफूज़ हूँ मै नाकामियों के साये मे
और मेरे हिस्से की भी अन्धेर ,अलग है ।
कोशिशों ने कामयाबी से रिश्ता तोड़ लिया
खुदा के रहमतों मे भी लगती देर,अलग है ।
तरस रहे हैं कामयाबी को कई काबिल यहाँ
लग जाती है अन्धों के हाथ बटेर अलग है ।
गुजार दी गुरबत मे जिंदगी अजय तुमने क्यूं?
बेचते जो ईमान तो बन जाते कुबेर अलग है
-अजय प्रसाद
सच है कि यारों जमाने लगे
लोग मुझे भी अब बुलाने लगे ।
चेह्रे पे बाप के रौनक आगई
सारे बेटे जो अब कमाने लगे ।
हो गया मै जब से ज़रा मशहूर
सलाम रिश्तेदारों के आने लगे ।
आ गई मुझको भी है अदाकारी
हक़ीक़त कुछ-कुछ छुपाने लगे ।
मान लो अजय तुम हो गए पुराने
आईने भी अब तुम्हे चिढ़ाने लगे ।
-अजय प्रसाद
कितनी उम्मीदें हमने पाल रक्खी है
ज़िन्दगी को यूँही खुशहाल रक्खी है ।
जानते हैं आज खरीद नहीं सकता हूँ
बच्चों ने मांगे कल पे टाल रक्खी है ।
बड़े महफूज़ रहते हैं उसकी आँखों में
ख्वाबों को उसने सम्भाल रक्खी है ।
जनता झांसे में आजाती है चुनाव में
सियासत बिछा कर वो जाल रक्खी है ।
जीना होगा अजय तुझे मौत पाने को
ज़िन्दगी ने शर्त ही कमाल रक्खी है ।
-अजय प्रसाद
बख्शी जो आपने इज्जत,शुक्रिया
बस इतनी ही थी ज़रूरत, शुक्रिया ।
आपकी दुआओं का है असर दोस्तों
हुई मुझको मुझ से मुहब्बत, शुक्रिया ।
रहने दो मुझे अपने साया-ए-दामन में
मिलती है सुकून-ओ-लज्जत, शुक्रिया ।
ए तो बड़ी रहमत -ए-खुदा है दोस्तो
वरना मिलती भी नहीं नफरत,शुक्रिया ।
शुक्रगुजार हूँ मै आपकी कद्र दानी से
मुझको मिल गई थोड़ी शोहरत शुक्रिया ।
-AJAY PRASAD
TGT ENGLISH DAV PS PGC
BIHARSHARIF ,NALANDA
कैसे हो आपकी रचनाओं की छपाई
आपने सदस्यता,राशि नही भिजबाई ।
मुफ्त में रिसाले भला कौन निकालेगा
कौन करेगा तमाम खर्चो की भरपाई ।
पढ़ता कौन है अब मैगज़ीन खरीद कर
नये दौर में हूई ,पुराने तौर की विदाई ।
फेसबुक,ट्वीटर,व्हाट्सप और ई-मेल
पर भी छपते हैं गज़ल,कविता व रुबाई ।
छपने को छटपटाते रहते हैं सुखनवर
पाठक है महबूब औ सम्पादक हरजाई ।
काव्यमंच के नाम पे अब हो रही है लूट
कईयों ने करी है अच्छी-खासी कमाई ।
सोंचता क्या है अजय हो जा तू भी शुरु
आखिर तेरी गज़लों को मिलेगी रिहाई ।
-अजय प्रसाद
खुदा भी आजकल खुद में ही परेशान होगा
ऊपर से जब कभी वो देखता इन्सान होगा ।
किस वास्ते थी बनाई कायनात के साथ हमें
और क्या हम बनकर हैं सोंचकर हैरान होगा ।
किया था मालामाल हमें दौलत-ए-कुदरत से
सोंचा था कि जीना हमारा बेहद आसान होगा ।
खूबसूरती अता की थी धरती को बेमिसाल
क्या पता था कि हिफाज़त में बेईमान होगा ।
दिलो-दिमाग दिये थे मिलजुलकर रहने को
इल्म न था लड़ने को हिन्दु मुसलमान होगा ।
खुदा तो खैर खुदा है लाजिमी है दुखी होना
देख कर हरक़तें हमारी शर्मिन्दा शैतान होगा ।
-अजय प्रसाद
रक्खा है मैंने आस्तीन में साँप पाल के
मिलना मुझसे तुम ज़रा देख भाल के ।
वैसे तो हूँ मैं दिखने में बेहद शरीफ मगर
रोक देता हूँ तरक्कींयाँ मैं अड़ंगे डाल के ।
मौके के मुताबिक मुखौटे भी हैं मेरे पास
और अभिनय भी करता हूँ मैं कमाल के ।
शक्ल-ओ-सूरत भी है इन्सानो के जैसा
मगर फ़ितरत मेरी है यारों बस हलाल के ।
कोसता हूँ कसम खा के मरते दम तक
रह न जाए दिल में कोई शिकवे मलाल के
-अजय प्रसाद
वर्षो से बहर की पाबंदियों में क़ैद है गज़ल
वरना हक़ीक़त से बेहद लबरेज़ है गज़ल ।
उस्तदों ने उलझा रक्खा है दुनिया-ए-इश्क़ में
जबकी हक़ बयानी में बेहद मुस्तैद है गज़ल ।
अक़्सर अहमियत इसकी हुस्नोइश्क़ में दिया
अगरचे इन्क़लाबी ज़मीं पे ज़र्खेज़ है गज़ल ।
अक़्सर संभाला है बहर ,मात्राओं ने गिर कर
शायर समझता है कि उसकी तुफैल है गज़ल
जिसको लगी लत इसकी वो तो काम से गया
अब कैसे कहें यारों कितनी पुरकैफ़ है गज़ल ।
ज़ुर्रत की कैसे अजय तुमने ये सब कहने की
तुम्हारे मुह से तो सुनना भी अवैध है गज़ल ।
-अजय प्रसाद
छ्पी है गज़ल कहाँ वो बता रहे हैं
अपनी काविलियत पे इतरा रहे हैं ।
कौन सी है पत्रिका औ क्या है नाम
तस्वीरों के साथ ही दिखा रहे हैं ।
एहसान मानते हैं एडिटर का मगर
पैसे कितने लगे ये नहीं बता रहे हैं ।
गिन के लाइक्सऔकमेंट्स हर पल
रोज़ खुद को यारों यूँ भरमा रहे हैं ।
साझा संकलन,ऑनलाइन सम्मेलन
में भी अपने टैलेंट को आजमा रहे हैं ।
क्या है अजय गर वो खुश हैं इसमे
चलो अच्छा है की दिल बहला रहे हैं
-अजय प्रसाद
आज़ाद गज़लें ( बहर पाबंदियां नहीं होती हैं )
(मेरे ख्याल से)
इश्क़ पे बदनुमा दाग है ताजमहल
फक़त कब्रे मुमताज है ताज महल ।
होगा दुनिया के लिए सातवां अजूबा
मेरे लिए तो इक लाश है ताज महल ।
फना जो खुद हुआ नहीं मुहब्बत में
उस की जिंदा मिसाल है ताजमहल ।
लोग खो जाते हैं इसकी खूबसूरती में
भूल जाते हैं कि उदास है ताजमहल ।
किसी की मौत पे इतना बड़ा मज़ाक
प्रेम का इक बस उपहास है ताजमहल ।
या खुदा इतनी खुदगर्जी आशिकी में
शाहजहाँ का मनोविकार है ताजमहल ।
अब छोड़ो भी तुम अजय गुस्सा करना
समझ लो कि इतिहास है ताज महल ।
-अजय प्रसाद
अपनी गज़लें ही तो मैं सुना रहा हूँ
कहाँ किसी का कुछ हथिया रहा हूँ ।
आप कहतें हैं कि कायदे से कहो
कहाँ कुछ भी इससे कमा रहा हूँ ।
रोजी-रोटी के लिए तो नौकरी ही है
मैं क्या शाईरी के घर चला रहा हूँ ।
मुबारक हो महफिल आपकी मियाँ
मैं तो बस फेसबुक पर ही आ रहा हूँ ।
मेरी गज़लों को बकवास कहनेवालों
तुम पर भी मैं फूल ही वर्षा रहा हूँ ।
याद रखना होगा कामयाब अजय भी
अभी तो बस वक्त को आजमा रहा हूँ ।
-अजय प्रसाद
भले-बुरे का दावा मैं नहीं करता
मतलब दिखावा मैं नहीं करता ।
मेरी हैसियत भी नहीं कुछ बोलूं
और शोरशराबा मैं नहीं करता ।
सोता हूँ चैन से रातों को, क्यूंकि
दिन भर छ्लावा मैं नहीं करता ।
मुतमईन हूँ खुदा के रहमतों से
कोई भी पछतावा मैं नहीं करता ।
ज़ख्मों पे मरहम लगा सकता हूँ
यारों कोई मुदावा मैं नहीं करता ।
(मुदावा-cure/redress )
-अजय प्रसाद
साहित्य,शाईरी,या सुखनवरी कमाने नहीं देतीं
शेर,गज़लें,कविताएं किसी को दाने नहीं देतीं ।
भुखमरी के शिकार हुए कई बड़े साहित्यकार
तालियाँ और तारीफें चार पैसे बनाने नहीं देतीं ।
क्यों मैं करुँ मेहनत खामखा इल्मे अरूज़ पे
जब मेरी गजलें मुझे गृहस्थी चलाने नहीं देतीं ।
हाँ चंद चाटुकार अदीबों की बात मैं नहीं करता
उनकीं हसरतें उन्हें हक़ीक़त बताने नहीं देतीं ।
फिल्मी गीतकारों की बात ही कुछ और है यारों
मगर वहाँ भी इमानदारी पैर जमाने नहीं देतीं ।
क्या तुम अजय फ़ालतू की बातें लेकर बैठे हो
कौन सी है जिम्मेदारी,ज़िंदगी निभाने नहीं देतीं ।
-अजय प्रसाद
रंगीनियों का रज़ाकार है बॉलीवुड
ख्वाबों का परौकार है बॉलीवुड ।
और कुछ चाहे हो या न हो मगर
एक खुदगर्ज सरकार है बॉलीवुड ।
किसे जमाना है, किसे मिटाना है
इन सब के लिए तैयार है बॉलीवुड ।
लाखों लड़के लड़कियों का शोषण
करने वाला कलाकार है बॉलीवुड ।
कितना झुठा है कितना सच्चा यारों
अब बताना ही बेकार है बॉलीवुड ।
जिनके पैसों पे हैं मौज़ उड़ाते सारे
उसी जनता से बेज़ार है बॉलीवुड ।
क्या कहे अजय अब तुमसे, लोगों
शिकारी और शिकार है बॉलीवुड ।
-अजय प्रसाद
जाने माने शायर उस्ताद राहत इंदौरी साहब एक लाइन पे एक ज़ुर्रत की है गुस्ताखि माफ़ करें
बुलाती है तो जाने का भई
मगर उसे अपनाने का नई ।
भले बला की हो खूबसूरत
पर दिल में बसाने का नई ।
लाख करें इज़्हारे इश्क़ वो
यार ज्यादा इतराने का नई ।
हुस्न जब कभी मेहरबाँ हो
इश्क़ में जाँ गंवाने का नई ।
आशिक़ी में मजनूँ के जैसा
खुद को यूँ मिटाने का नई ।
अजय अब चुप हो जा तू
बेवजह यूँ चिल्लाने का नई
-अजय प्रसाद
हर न्यूज़ एंकर है कहता,वो सच बता रहा है
इसी तरह अवाम को बेवकूफ बना रहा है ।
रवीश,सुधीर,ओम,अर्णव,प्रसून या हो रजत
हर कोई अपने लिए टी आर पी बढ़ा रहा है ।
ब्रेकिंग न्यूज़,पूछता है भारत ,आज की बात
दर्शकों के मुताबिक ही परोसा जा रहा है ।
विज्ञापन की भरमार और बीच में समाचार
चलो अच्छा है लोगों को भी बहुत भा रहा है ।
तुमने कौन सा तीर मार लिया है अजय बोलो
तुम्हें भला इनपे क्यों इतना गुस्सा आ रहा है ।
-अजय प्रसाद
इश्क़ के कीड़े मेरे दिल में कुलबुलाते रह गये
आशिक़ी के नुस्खे हमें,बस आजमाते रह गये ।
कहा था जिनको चाँद हमने, लगा उन्हें ग्रहण
हर पूर्णिमा मुझे छत पे यूहीं टहलाते रह गये ।
वादा करने में थे सनम सरकार से भी आगे
अक़्सर हमारी मुलाकातें वो टरकाते रह गये ।
टुट न जाये कनेक्शन कहीं लव-ए-इंटरनेट का
अपने फ़ोन में हमसे बैलेंस डलबाते रह गये ।
हम भी कहाँ एसे ही छोड़ने वाले थे उन्हें यारों
उनकी हरएक तस्वीर पे कैचीं चलाते रह गये ।
-अजय प्रसाद
केवल चाह लेने से किसी का बुरा नहीं होता
जो हक़ीक़त में है वो कभी झूठा नहीं होता ।
लाख कोस ले कोई किसी को उम्र भर यारों
कुछ भी याँ रब की मर्ज़ी के बिना नहीं होता ।
खुदगर्जी खुश रहती खुशामद पा कर बेहद
और खुद्दारी कभी किसी पे टिका नहीं होता ।
राहें बदल दे जो हर ठोकर पे दौर-ए-सफ़र
और कुछ भी हो किसी का रहनुमा नहीं होता ।
झेलने पड़ते हैं न जाने क्या-क्या सितम यहाँ
आसानी से कोई पीर,पैगंबर,मसीहा नहीं होता ।
-अजय प्रसाद
अपनी एक अलग ही मैं दुनिया बसाऊँगा
जहाँ सिर्फ़ हर तरह बेईमानो को बुलाऊँगा ।
सच्चाई,इमानदारी, सादगी और खुलूस से
इन सब की मै जमकर खिदमत कराऊँगा ।
जब तलक न आत्मा कचौटे खुदगर्ज़ो की
तब तलक मैं अपना खुन पसीना बहाऊँगा ।
शायद एहसास हो जाए अपनी गलतियों का
सामने इनके,इनकी करतूतों को दोहराऊँगा ।
जनता हूँ अजय ये नामुमकिन है हक़ीक़त में
इसिलिए तो फिक्र अपने ख्यालों में लाऊँगा ।
-अजय प्रसाद
कहानी में हूँ किरदार की तरह
बाज़ार में हूँ खरीदार की तरह ।
अहमियत बस उतनी है घर में
जैसे चौखटऔर द्वार की तरह ।
कोई मेरे बराबर ही नहीं यहाँ
मैं हूँ चीन की दीवार की तरह ।
वादा करके मुझे भूल गए हैं वो
सनम भी हैं सरकार की तरह ।
अब क्या कहें अजय तुम से
हैसियत में हो बेगार की तरह ।
-अजय प्रसाद
होती है क्या तरक्की किसी गरीब से पूछो
कैसे कमाई जाती है दौलत अमीर से पूछो
क्या-क्या करने पड़ते हैं परिवार चलाने को
छिन गई हो जिसकी रोज़ी बदनसीब से पूछो।
रहनुमा रहम दिल हो ऐसा कभी नहीं हुआ
किस कदर ये खलती है ,टूटती उम्मीद से पूछो ।
छिन ली रिसालो की हुकूमत बदलते वक्त ने
हश्र क्या हुआ लिखने बालों का,अदीब से पूछो ।
खामोश खड़ा देखता है रोज़ अपने आस पास
किस तरह उड़ती है धज्जियां तहजीब से पूछो ।
मौत मुतमईन है अजय आदमी के इन्तेजाम से
दुआ,दवा ,ईलाज है क्यूँ बेअसर,मरीज़ से पूछो ।
-AJAY PRASAD
ख्वाब कोई आंखों में मैंने पनपने नहीं दिया
खुद को आवारा सडकों पे भटकने नहीं दिया ।
होश सम्भालते ही होना होशियार, मुझे पड़ा
जिम्मेदारियों ने मेरी मुझे बिगड़ने नहीं दिया ।
इससे पहले कि कोई तोड़े मेरा भी दिल यारों
किसी जवाँ हसीं को दिल में बसने नहीं दिया ।
ज़ुर्रत न थी खुशियों को कभी पास आने की
गमों ने उन्हें कभी मेरे आगे फटकने नहीं दिया ।
बस मुसल्सल सफ़र में ही उलझा कर रक्खा
रास्तों ने ही मुझे मंज़िल तक पहुँचने नहीं दिया ।
तक़लीफ़ मेरे वजूद को ही रहा है मुझसे अक़्सर
मुझसे यारों मुझे ही आज तक मिलने नहीं दिया ।
-अजय प्रसाद
खेद है आपकी रचना पत्रिका के लायक नहीं है
माने साहित्यिक दृष्टिकोण से फलदायक नहीं है ।
आपकी लेखनी है मौलिकता में बेहद कमजोर
क्योंकि हुकूमत के लिए ये आरामदायक नहीं है ।
न छंदोबद्ध है,न बहर में ,न अंतर्गत कोई विधा
हाँ अवाम के जद्दोजहद की सच्ची परिचयाक है
आपकी रचनाओं में शालीनता की बहुत कमी है
और आपकी कहानी में भी कृत्रिम नायक नहीं है ।
श्री मान अजय जी वापस की गई रचना आपकी
अनयत्र न भेजें,कहीं और छपने के लायक नहीं है
-अजय प्रसाद
फेसबुक पर
चलो निकालतें हैं भड़ास फ़ेसबुक पे
कुछ पल को होतें है उदास फेसबुक पे ।
हक़ीक़त में तो जा कर लड़ नहीं सकते
क्यूँ न बन जाएं हम सुभाष फेसबुक पे ।
लिखें,शायरी,कविता,दोहे,शेर वगैरह ही
उड़ा दे चीन की होशोहवास फेसबुक पे ।
शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए
पहनें देशभक्ति का लिबास फेसबुक पे ।
जाओ अजय तुम भी कम नहीं किसी से
दिखाते हो खुद को बदहवास फेसबुक पे ।
– अजय प्रसाद
उस्ताद कई हैं फ़ेसबुकिया जो शायरी सिखातें हैं
और बे-बहर लिखनेवालों की औकात बतातें हैं ।
बे-अरूज़ गज़ल कहना है उनकी नज़र में गुनाह
मगर पेट पालने के लिए वो कहीं और से कमातें हैं ।
मतला,मकता,काफ़िया और रदीफ़ के साथ साथ
क्या है रुक्न और कितने हैं बहर सब बतातें हैं ।
किसे कहतें हैं तरही मुशायरा, क्या है फिलबदीह
तमाम चीजों को वो बेहद बारीकी से समझातें हैं ।
काफ़िये के कायदे,और कवायद-ए-रदीफ़ ही नहीं
वल्की कैसे मात्रा गिना जाता है ये भी बतातें हैं ।
क्या है मात्रा गिराने के नियम के फायदे गज़ल में
कैसे कही जातें हैं गज़लें बहर में यारों सिखातें हैं ।
कई नामी गिरामी शायरों के शेरों पे होती है बहस
और नये लिखनेवालों को उनके नाम से डरातें हैं ।
सब जानते है कि ज़िंदगी शायरों की गुजरी कैसे
लेकिन बस उनके लिखे कलामों को ही गिनातें हैं ।
तेरा क्या होगा अजय तू सोंच के रख ले अभी से
पता नहीं तुझे कहाँ से ये लोग इतना जोश लातें हैं ।
-अजय प्रसाद
शायरी आजकल बेहद शरमा रही है
शायरों को वो दिन-रात आजमा रही है ।
ग़ालिब गुस्से में हैं और हैं खफ़ा ज़फर भी
क्योंकि नई पीढ़ी जो उनको भुला रही है ।
बे-बहर गजलें और वाह वाही की फ़सलें
मीर,मोमिन,दागओअदम को चिढ़ा रही है ।
कैफ़ी और दुष्यंत दूर से हैं बिलबिलाते
शायरी उनकी उनसे ही मुहँ फूला रही है ।
अव्वल दर्जे के अहमक हो अजय तुम भी
खुद ये गज़ल ही तुम्हारी खिल्ली उड़ा रही है।
-अजय प्रसाद
लो मिल गया फ़िर से चिल्लाने को नया मुद्दा
कल तलक जो था टीवी पर वो,खो गया मुद्दा ।
चर्चा चलेगा चार दिन को,बैठेंगे चार लोग भी
बस इसी तरह से चैनलों का पेट भर गया मुद्दा ।
बीच बीच में में विज्ञापन और अनर्गल समापन
न्यूज़ चैनलों के लिए टी आर पी बढ़ा गया मुद्दा ।
हल तो कर सके न किसी भी मसले का मगर
दोस्तों देखिए कैसे ब्रेकिंग न्यूज़ बन गया मुद्दा ।
जब तक था वो ज़िंदा किसी ने हाल भी न पूछा
खुदकुशि करते ही विचारा बन कर छा गया मुद्दा
-अजय प्रसाद
-अजय प्रसाद
घिस रही है लाइफ डिटर्जेंट की तरह
पेश आती है वाईफ मैनेजमेंट की तरह ।
रोज़ बतातें है फायदे बीमा पॉलिसी के
दोस्त सब हैं एलाईसी एजेंट की तरह ।
ऑफिस में बॉस मेहरबाँ हैं हाइली यारों
संडे भी बुलाता है काम अर्जेंट की तरह ।
मुसीबतों का आना जाना लगा रहता है
रिश्ता है स्ट्रांग अम्बुजा सीमेंट की तरह ।
गॉड की मर्ज़ी के खिलाफ़ नो रिक़ुएस्ट
लेता हूँ आर्डर ऑनेस्ट सरवेंट की तरह ।
हो गए हो तुम अजय अब ओल्ड माडल
दिख रहे हो आजकल पेशेंट की तरह
-अजय प्रसाद
जब तृप्त हो आत्मा,शरीर किस काम का
जो न जागा वक्त पे,ज़मीर किस काम का ।
कभी किसी के हक़ में गर दुआ ही न करे
फ़िर भला कहिए फक़ीर किस काम का ।
वक्त के साथ जो न बदल दे सियासत को
भला ऐसा बेवकूफ वज़ीर किस काम का ।
झकझोर न सका जो जेहन सुनने वालों का
फ़िर बताइए हुजूर तक़रीर किस काम का ।
दौलत तुम्हारी गर तुम्हें न दे पाए कोई सुकून
अजय होना तुम्हारा अमीर किस काम का ।
-अजय प्रसाद
सोंचता हूँ कुछ देश सेवा कर लूँ
लेकिन पहले अपनी जेब भर लूँ ।
भुख,गरीबी,बेरोजगारी कब न थी
तो क्यूँ इलज़ाम अपने ही सर लूँ ।
वादे से मुकरना तो ज़ायज़ है यारों
तो क्यूँ न अवाम से वादे ही कर लूँ ।
मरतें है किसान तो मैं क्या करूँ
आप चाहते हैं कि मैं भी मर लूँ ।
सियासत करूँगा सहूलियत देख के
मैं वो नहीं कि मुसीबतें खुद सर लूँ ।
इरादे मेरे बिलकुल नेक हैं अजय
बस यूँ ही सोंचा कुछ खयाल कर लूँ ।
-अजय प्रसाद
आइना मुझको मेरी औकात बताता है
कूछ इस तरह से हर रोज़ ही सताता है ।
जब कभी भी सामने गया हूँ मैं उसके
उम्र ढल जाने का एहसास कराता है ।
लाख कर लूँ जतन खुश रहने की मैं
हाल-ए-मुल्क मेरा मुझको रुलाता है ।
मसअले मुझसे बेहद मुतमईन हैं रहते
और चैनो अमन दूर से ही मुस्कुराता है ।
ज़िंदगी की अदा भी कमाल है यारों
मर के है जिंदा,कोई ज़िंदा मर जाता है ।
-अजय प्रसाद
हो गया है विकृत मानसिकता का शिकार वेव सीरीज
है अश्लीलता और भौंडापन का अम्बार वेव सीरीज ।
टिक-टॉक ,व्हाट्सपप,लाइक,हैलो,औ पब जी के बाद
दौर-ए-इंटरनेट का है बेहद घातक विकार वेब सीरीज ।
सड़े-गले कथानकों पे करते हैं दोस्तों बदबूदार अभिनय
कला के नाम पे कर रहा कलंकित संस्कार वेब सीरीज ।
बेसिरपैर की कहानियाँ उसपर अधनंगी ये जवानियाँ
आजकल है नैतिकता के लिए अत्याचार वेब सीरीज ।
उड़ा कर धज्जियां तहजीबों और रवायतों की बेशर्मी से
अब बेखौफ़ करते हैं अपना प्रचार-प्रसार वेब सीरीज ।
-अजय प्रसाद
हो सकी न कभी जो कबूल,वो दुआ हो तुम
मेरी गज़लों के लिए ही सही ,खुदा हो तुम ।
जब जुदाई में हैं जिम्मेदार दोनो ही बराबर
किस मुह से मैं कह दूं कि बेवफा हो तुम ।
मुसल्सल मुसीबतों ने मशगूल रक्खा है मुझे
और मेरी जद्दो-जहद के लिए हौसला हो तुम ।
कोशिशें मेरी कामयाबी को तरसती रह गई
जो कभी मिली ही नहीं वो सफलता हो तुम ।
अब तो मौत भी मुझ से कतराने लगी अजय
इस कदर मेरी ज़िंदगी से क्यूँ खफ़ा हो तुम ।
-अजय प्रसाद
झूठ बोलना आज के दौर में लाजिमी है
वरना लोग कहेंगे ईमानदारी ही नही है ।
फक़त चापलूसी से कहाँ है काम होता
निर्लज और भ्रष्ट होना भी अब ज़रुरी है ।
सच बोलना मगर सहूलियत देख कर
क्योंकि आज कोई उसे पूछता ही नही है ।
सादगी,खुलूस ,खिदमत गर करोगे तुम
सब कहेंगे कैसा बेवकूफ ये आदमी है ।
अजय तू भी किसे समझा रहा ये बातें
आज के दौर की यही तो खूबसूरती है ।
-अजय प्रसाद
तुमने मुझे “आई लव यू “बोला
रास्ता मेरी तबाही का खोला ।
बेवकूफ समझती हो क्या तुम
हूँ चालाक पर दिखता हूं भोला ।
अदाएँ तेरी मुबारक हो तुझको
दिल मेरा आज तक नहीं डोला ।
सीधे-सीधे मुद्दे की बात कर तू
न हूँ मैं मजनूँ,न है तू मेरी लैला ।
जलवे तेरे मुझे रास नहीं आते हैं
और देखते ही खुन मेरा खौला ।
जिस्मों की ज़कात करते हो तुम
कभी क्या तूने है मन को टटोला
-अजय प्रसाद
नहीं लिखता मैं गज़लें गाने के लिए
हैं सिर्फ़ ये बहरों को सुनाने के लिए ।
कभी मात्रा मैनें गिराया नहीं कयोंकि
बहरें तो हैं बस लय मिलाने के लिए ।
बहर में लिखनेवालों को मेरा सलाम
लिखता हूँ मैं दिल बहलाने के लिए ।
जिन्हें हो पसंद वो पढ़ें,करें अलोचना
है नापसंद को रास्ता दिखाने के लिए ।
मैंने किसी से कोई राय नहीं मांगा है
न किसी से कहा मुझे अपनाने के लिए ।
अबे कितना बकबक करता है, अजय
कौन आ रहा है तूझे मनाने के लिए ।
-अजय प्रसाद
अपनी बारी का इंतजार कीजिए
मतलब कायदे से प्यार किजीए ।
आशिकों के आखरी सफ़े पर हैं
खुद को मत यूँ बेकरार किजीए ।
अभी दिल भरा नहीं है रकीबों से
खयाल ये भी ज़रा यार किजीए ।
हुस्न पे मर मिटने,वाले कम नही
दावे आप जितने हज़ार किजीए ।
उनकी महफिल, है उनकी मर्ज़ी
भले आप खुद से हक़दार किजीए ।
आप भी अजय आ गए इस गली में
उम्र के मुताबिक व्यवहार किजीए ।
-अजय प्रसाद
कवि बनने की जो होड़ है
जज़्बा ये बहुत बेजोड़ है ।
मर्ज़ है लाइलाज़ ये दोस्तों
दवा है और न कोई तोड़ है ।
जब तक न सुना दें दो चार
रहता पेट में इनके मरोड़ है ।
अब तो हैं अनगिनत मंच भी
जहाँ कवियों की होती दौड़ है ।
लगता है आई मेरी बारी भी
मुझे भी सुनाने ताबड़तोड़ है
-अजय प्रसाद
अबे चुप हो जा क्या बकता है
हुजूर आएं हैं वो नहीं दिखता है ।
आश्वासन ले और जा एश कर
कुछ इसके सिवा नहीं मिलता है ।
कब तक रोना रोएगा गरीबी का
तू भी विपक्षी दल का लगता है ।
बंद योजनाएँ हैं फाइलों में फ़ख्र से
और तू फ़िर भी हमे ही कोसता है ।
क्या उखाड़ लेंगे ये मीडिया वाले
चैनल जब विज्ञापनों से चलता है ।
और अजय तेरी है औकात क्या
जो तारीफ़ के टुकड़ों पे पलता है ।
-अजय प्रसाद
गुस्सा थूक,अब जाने दे
मसलों को मुस्कुराने दे ।
सदियों से होता आया है
होता है जो हो जाने दे ।
दिल जला न मुँह फूला
दौर है ये गुज़र जाने दे ।
प्यास अपनी संभाले रख
इरादों पे पानी फिराने दे ।
हौसले अभी जिन्दा रख
नाकामी को आज़माने दे ।
वक्त किसका हुआ कभी
वक्त को अभी इतराने दे ।
-अजय प्रसाद
आदमी को आदमी समझता ही नहीं
जैसे उसको कोई खौफे खुदा ही नहीं ।
इतनी खुदगर्ज़ी है इवादत में शामिल
करता किसी के लिए वो दुआ ही नहीं ।
पेश आता है बड़ी बेरुखी से अक़्सर
जैसे मुझे वो अब जानता ही नहीं ।
मेरी गरीबी से भी बहुत गुरेज़ है उसे
जबकी इसमे मेरी कोई खता ही नहीं ।
रास्ते भी रहम खाते नहीं मुझ पे यारों
देते मुझे मेरी मंज़िल का पता ही नहीं ।
-अजय प्रसाद
या रब कुछ तो आसान कर
सबको गमों से अन्जान कर ।
ज़िंदगीयाँ हैं जिनकी बेरहम
उनको अपना मेहमान कर ।
रोने को अब आसूँ भी नहीं
आंखों पर भी एहसान कर ।
मेरी तो कोई सुनता ही नहीं
ज़ारी तू अच्छी फरमान कर ।
जैसे अता की है खुबसूरती
खुबसूरत और ये जहान कर ।
थक चुके हैं लोग इवादत से
कुछ तो इधर भी ध्यान कर ।
कब तलक रहेगा यही चलन
अब तो धरती आसमान कर ।
-अजय प्रसाद
हुस्नोइश्क़ के अलावे है कुछ, तो सुना
हक़ीक़त क्या है दुनिया को भी बता ।
आशिकों की अक्ल आ गई है ठिकाने
न दिखी लैला और न कोई मजनूँ दिखा ।
दिल लगाते हैं ये अब दिमाग दुरुस्त कर
न करते वफ़ा हैं और न कहतें हैं बेवफ़ा ।
जब भी मौका मिलता हैं मिल लेते दोनो
न शिकवा है किसी से न कोई है गिला ।
प्यार कितना प्रैक्टिकल हो गया है यारों
हो गया प्यार उसी से जो वक्त पर मिला ।
यही खासियत है इस दौर के आशिक़ो में
भूला देता है उसको जो उसे नहीं मिला
-अजय प्रसाद
उसकी महफिल से निकाला गया
कुछ इस तरहा मुझे संभाला गया ।
मैं तो डूब चला था इश्क़ में उसके
मुझे अच्छी तरह से खंगाला गया ।
आपको तरक्की मुबारक हो हुजूर
छिना तो गरीबों का निवाला गया ।
जिन हादसों में लोग जान गंवाते हैं
मुझे उन्हीं हादसों में है पाला गया ।
वक्त हमेशा से ही रहा मेरे खिलाफ
मेरे हर आज को कल पे टाला गया।
खुदा खुश है अपनी कामयाबी पे
था बला अजय जिसको टाला गया ।
-अजय प्रसाद
कवि सम्मेलनों और मुशायरों की भरमार है
कोरोना काल में बेहद खुश साहित्यकार है।
कभी है ऑनलाइन तो है कभी ऑफ़ लाईन
सुबहो-शाम,रात और दिन काफ़ी गुलज़ार है।
हरेक मुद्दे पर कलम चलाते हैं तलवारों जैसे
हर मुद्दा इनके कलम का बेहद तलबगार है।
ऐडमिन,मॉडरेटर,संचालक या हो प्रतिभागी
हर बंदा सुनने कम पर सुनाने को बेकरार है।
तालियों में लाइक्स औ तारीफों में कमेन्ट्स
साहित्य में लेन देन का अच्छा करोबार है ।
तू क्यों इतना खफा है अजय इन लोगों से
तुझे भी तो दावते सुखन का ही इन्तज़ार है ।
-अजय प्रसाद
यारों मैं भी एक फ़ेसबुकिया साहित्यकार हूँ
ये और बात मैं लिखता घटिया और बेकार हूँ ।
रहता हूँ मैं तलाश में दिन-रात मौज़ुआत के
रख देता रोज़ उड़ेल पोस्ट पे मन के उदगार हूँ ।
नहीं चाहिये मुझे शोहरत और तमगे बुलंदी के
मैं तो खुश हुआ पाकर आपका तिरस्कार हूँ ।
मेरी शायरी किसी तारीफ़ की है मोहताज नहीं
बस हक़ीक़त वयां करने के लिए मैं बेक़रार हूं ।
कभी न कभी कोई न कोई तो सराहेगा मुझे भी
बस उसी बेसब्र घड़ी, का अजय मैं इन्तज़ार हूँ
-अजय प्रसाद
कैसे बताऊँ यारों कितना मैं सहनशील हुआ हूँ
जब से सहित्यिक ग्रुप का मैं ऐडमिन बना हूँ ।
सुबह,शाम,रात और दिन है कर दिया कुर्बान
तब जाकर कहीं थोडा सा मैं नामचीन हुआ हूँ ।
ऑनलाइन सम्मेलन औ साप्ताहिक विश्लेशण
सिलसिलेवार ढंग से सब मैने मेनटेन किया हूँ ।
भांती-भांती के साहित्यकारों को जोड़ा है मैने
तुम्हें क्या पता सबको कितना एंटरटेन किया हूँ ।
जाओ अजय तुम भी कभी मुझें याद रखोगे
तुम्हारे बकवास शायरी पे भी कमेन्ट्स किया हूँ
-अजय प्रसाद
भले-बुरे का दावा मैं नहीं करता
मतलब दिखावा मैं नहीं करता ।
मेरी हैसियत भी नहीं कुछ बोलूं
और शोरशराबा मैं नहीं करता ।
सोता हूँ चैन से रातों को, क्यूंकि
दिन भर छ्लावा मैं नहीं करता ।
मुतमईन हूँ खुदा के रहमतों से
कोई भी पछतावा मैं नहीं करता ।
ज़ख्मों पे मरहम लगा सकता हूँ
यारों कोई मुदावा मैं नहीं करता ।
(मुदावा-cure/redress )
-अजय प्रसाद
हर शायर आजकल खुद को बड़ा गमज़दा बता रहा है
ये और बात है हर ऐशो-आराम से पिज़्ज़ा खा रहा है ।
एक से एक नमूने के तौर पे शेर पेश करता है दोस्तों
जैसे पूरी दुनिया का रन्ज़ो गम बस उसे ही सता रहा है ।
कोई भी मौका छोड़ता नहीं है खुद को साबित करने में
हर एक मुद्दे पर वो अपनी काबिलियत आजमा रहा है ।
कवियों की कविताओं से तो खुद परेशान हैं समस्याएँ
सोंचतें जरुर होंगे विचारे बेवजह क्यूँ घसीटा जा रहा है ।
हल तो किसी मसले का कर न पाए आजतक ये लोग
दिखावे के लिए साहित्य के रुप में छाती पीटा जा रहा है ।
तु भी अजय कौन सा पीछे है किसी कम्बखत कवि से
अपनी शायरी में तू भी तो उन्हीं चीज़ों को दोहरा रहा है ।
-अजय प्रसाद
खुदा भी आजकल खुद में ही परेशान होगा
ऊपर से जब कभी वो देखता इन्सान होगा ।
किस वास्ते थी बनाई कायनात के साथ हमें
और क्या हम बनकर हैं सोंचकर हैरान होगा ।
किया था मालामाल हमें दौलत-ए-कुदरत से
सोंचा था कि जीना हमारा बेहद आसान होगा ।
खूबसूरती अता की थी धरती को बेमिसाल
क्या पता था कि हिफाज़त में बेईमान होगा ।
दिलो-दिमाग दिये थे मिलजुलकर रहने को
इल्म न था लड़ने को हिन्दु मुसलमान होगा ।
खुदा तो खैर खुदा है लाजिमी है दुखी होना
देख कर हरक़तें हमारी शर्मिन्दा शैतान होगा ।
-अजय प्रसाद
निकल गया है साँप लकीर पीट रहें हैं
मर चुकी है आत्मा शरीर घसीट रहें हैं ।
ज़िंदगी है तो ज़िंदा रहने का हुनर भी
कर हम सब बस उसिको रिपीट रहें हैं ।
कहाँ तकदीर में है सबके लिए मकान
घर किसी के ,फुटपाथ और स्ट्रीट रहें हैं ।
बस तो गई है आबादी बेशुमार शहरों में
दिलो-दिमाग में मगर आज कंक्रीट रहें हैं ।
हैं तरक्कींयाँ नसीबों में उन्हीं नौकरों के
जो भी अपने मालिकों के फ़ेवरीट रहें हैं ।
-अजय प्रसाद
आत्मपरिचय
अजय प्रसाद
शिक्षा:- एम ए (इंग्लिश) बीएड
?9006233052
पिता: स्वर्गीय बसंत
जन्म: 10मार्च 1973
स्थायी पता:- द्वारा अजय प्रसाद
12 नंबर डंगाल , NEAR DSP LINE RLY BRIDGE
प्लॉट नं:- 342 ,पोस्ट-ANDAL जिला-BURDWAN
713321 WEST BENGAL
Present Address
Working as TGT ENGLISH (Teacher)
at –
DAV PUBLIC SCHOOL
POWER GRID CAMPUS,BIJVAN PAR
BIHARSHARIF,NALANDA, 803216 (BIHAR)
कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित
कई साझा संकलन में प्रकाशित,
एकल संग्रह “आज़ाद गज़लें ” प्रकाशित RAJMNGAL PUBLISHING HOUSE से
“रंगमंच प्रकाशन “के दो साझा संकलन में प्रकाशित
बुक लीफ प्रकाशन से मुक्तक संग्रह प्रकाशित करने के लिए प्रेषित
SAHITYAPIDIYA ,AMARUJALA ,दैनिक वर्तमान, विजयदरपण टाइम्स, नवीन कदम, साहित्यनामा, साहित्य मंजरी ,
इत्यादि में रचनाओं का प्रकाशन जारी
चाह नहीं कि मै कोई स्मारक बनूं
न किसी के चोट का कारक बनूं ।
न किसी राहगीर के पैरों का ठोकर
न किसी मंदिर की मूर्ति का धारक बनूं ।
न तो किसी मस्जिद की ऊँची मीनार
न बनूं किसी चर्च की कीमती दीवार ।
न महापुरुष की प्रतिमा का आकार
न बनूं अमीर के घर का चौखट द्वार ।
हे प्रभु! मेरी बस यही है प्रार्थना
बनूं मजलूम के हाथों का औजार
बच्चों के फल तोडने का हथियार
जिस से पेट पाल लेता हो कुम्हार
या शहीदों के समाधि का आधार ।
-अजय प्रसाद
आईये सुन लें ज़रा बाबा लालची जी का प्रवचन
एंट्री तो फ्री है मगर दान में लें तें हैं मोटी रकम ।
साधना,त्याग और तपस्या में सारी उम्र है गुजारी
रात दिन सेविकाएँ ही इनका करतीं हैं मनोरंजन ।
‘मोह माया में मत फंसे रहना तू ए इन्सान’,कहतें हैं
इस कीमती ज्ञान के बदले में लेंतें है भक्तों से धन ।
रहते हैं आलिशान बंगले में एशो आराम के साथ
कहतें हैं दुनिया को ये है मेरा छोटा सा आश्रम ।
जाने कितने चमत्कार किये हैं तुम्हें क्या पता है
करतें तबादले अफसरों के जितवाते हैं इलेक्शन ।
चेले इनके भरे पडें हैं चाहे इंडिया हो या एब्रोड
पूरे विश्व के भ्रष्ट लोगों से इनका है गहरा रिलेशन ।
सोंचा क्यों न आज आप लोगों को भी मिलवा दूँ
इसलिए अजय से मैने लिखवाया है ये इंट्रोडक्शन ।
-अजय प्रसाद
आईये आप को दिखाता हूँ मैं बाढ़ का नज़ारा
कैसे जलमग्न हुआ है घर,गावँ,गलियाँ चौबारा ।
वो जो जरा सा मुंडेर दिखाई देता है न पानी में
बस वही तो हुजूर डूबा हुआ है घरवार हमारा ।
आप न करें तकलीफ उतर कर यहाँ देखने की
प्रशासन ने तो किया ही होगा बन्दोबस्त सारा ।
हेलीकाप्टर,मोटरबोट अधिकारी और चपरासी
सब बताएँगे कि कैसे मुश्किलों से है हमें उबारा ।
आप बस राहत की राशि का एलान कर दिजीये
फ़िर देखें कितना जल्द होगा बाढ़ से निपटारा ।
राशि मिलते ही बंदरबाट हो जाएगी आपस में
हमारे इलाकों से बाढ़ का पानी निकलेगा सारा ।
यही परम्परा है जो इमानदारी से निभाई जाती है
पीड़ितों को मिलता है राशन हो जाता है गुजारा ।
तुम भी न अजय हो एक अव्वल दर्जे के बेवकूफ
जहाँ जाते हो खोल देते हो अपने मुहँ का पिटारा ।
-अजय प्रसाद