गुल उदास है …
बाग़ में एक गुल को मायूस देखकर ,
हाल उसका पूछा पास उसके बैठकर ।
क्यों मायूस हो तुम ,क्या गम है तुम्हें ,
बता मेरे दोस्त ,क्या कहीं दर्द है तुम्हें ।
आहो-ज़र्द मुखड़े को उसके मैने सहलाया ,
उसकी नाज़ुक पंखुड़ियों को भी सहलाया ।
उसने एक पलक मुझे देख फेर ली नज़र
बड़ी नफरत उसकी आँखों में आई नज़र ।
पूछा मुझसे क्यों आये हो तुम ऐ इंसान !
कैसे बताऊँ हाल -ऐ-दिल तुम हो अनजान ।
क्या कर लोगे गर जान भी तुमने लिया ,
क्या मिटा दोगे वो ज़ख्म जो तुमने दिया ।
बड़ी कातर नज़रों से उसने देखा जब मुझे
मेरे ज़मीर ने ही बड़ा दुत्कारा तब मुझे ।
नज़र आया आँखों के सामने एक मंज़र ,
अपने गुनाहों का एक बड़ा खौफनाक मंज़र
एक हँसते -खेलते चमन को मैने वीरान देखा,
अपने वहशियत को सूरत में बर्बादी को देखा ।
क्यों अपने स्वार्थ में लालच में अंधा हो गया ,
वसुंधरा की गोद को बेदर्दी से सूना कर दिया।
क्यों मैने बाग़ उजाड़े क्यों पेड़ -पौधे मसल डाले,
खेत-खलिहान बंजर कर पहाड़ तोड़ डाले ।
नदियों का दामन मैला औ तालाबों को सुखाया,
मेरी भूख ने सम्पूर्ण प्रकृति को निगल लिया ।
गुनाह मैने किया औ कीमत इन मासूमों ने चुकाया
धिक मनुष्य होने पर क्यों मुझे संकोच न हुआ ।
पश्चाताप आंसू आँखों में लिए मैने गुल से कहा ,
मिटा दूंगा तुम्हारे सभी दुःख जो कुछ तुमने सहा।
तुम्हारे गुलशन को आबाद कर फिर से दूंगा ,
तुम्हारे मुखड़े पर मुस्कान फिर से खिला दूंगा ।
लहराओगे ,झुमोगे मस्तानी हवा के साथ तुम ,
आयेगा वोह वक़्त लौटकर धीरज रखो तुम।