गुल्लक
एक हाथ में टूटी गुड़िया थामे चार वर्षीया रंजना दूसरे हाथ से अपने अश्रुपूरित नेत्रों को पोंछती हुई एवं सुबकते हुये श्याम के कमरे में दाखिल हुई। श्याम– उसका अग्रज जो उससे उम्र में लगभग आठ वर्ष बड़ा था। वह अपने कमरे में पुस्तकों में उलझा हुआ था। वह अध्ययन में इतना तल्लीन था कि रंजना के कमरे में प्रवेश करने का उसे आभास तक न हुआ। रंजना ने कुछ पल प्रतीक्षा की और जब उसे प्रतीत हुआ कि श्याम उसकी ओर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहा तो उसने आवेश में अपनी गुड़िया श्याम के पुस्तक पर दे मारी। नेत्रों को पोंछने एवं सुबकने का क्रम जारी था। अचानक गुड़िया के हमले के लिये श्याम तैयार न था। वह चौंक पड़ा।
” क्या हुआ?” श्याम के मुख से अनायास निकल पड़ा। श्याम के प्रश्न ने उसके सुबकने के क्रम को रोने में तब्दील कर दिया था।
” अरे, कुछ बोलोगी या यूँ ही रोते रहोगी।” श्याम खाट पर पड़ी पुस्तकों को छोड़कर नीचे उतर आया था और उसके दोनों कंधों को पकड़कर हौले से हिला दिया था। उसके आँसुओं को पोंछते हुये उसने उसे चुप कराया।
” चुप …..चुप हो जा, बता क्या बात है?”
” मेरी… गुड़िया …टूट ..गई.. है।” सुबकते हुये रंजना ने जवाब दिया।
” बस, इतनी सी बात……” कहते हुये उसने रंजना के गालों पर प्यार से थपथपाया और फिर उसे गोद में उठाते हुये बोला–” मेरी गुड़िया जैसी बहना की गुड़िया टूट गई है, कोई बात नहीं। मैं तुम्हें दूसरी गुड़िया ला दूँगा।”
रंजना को ऐसा प्रतीत हुआ जाने कब दूसरी गुड़िया मिलेगी। उसने अपने दोनों नन्हें हाथों से लगातार वार करते हुये कहा- ” नहीं मुझे अभी गुड़िया चाहिये।”
उसे गोद से उतारते हुये श्याम ने कहा- ” अच्छा, हम अभी ला देते हैं भई, थोड़ा रुको।”
फिर अलगनी पर रखे अपने गुल्लक वह उठा लाया था। नन्हीं रंजना उसे थपथपाते हुये पूछ रही थी और आश्चर्य से देख रही थी- ” ये क्या है ……भैया?”
” बताता हूँ, बताता हूँ………जरा रुको तो सही।” गुल्लक उलट कर वह तीली से सिक्के निकाल रहा था। खन् की आवाज के साथ एक दस रुपये का सिक्का नीचे गिरा।
“ये………” रंजना ताली बजाते हुये सिक्के की ओर लपकी। सिक्का उठाकर उसने श्याम को दे दिया था। कुछ सिक्के निकालकर श्याम ने अपनी जेब में रख लिया था।
” इसे गुल्लक कहते हैं।”
” भैया…..,इसमें ढेर सारे पैसे हैं?” रंजना आश्चर्य चकित थी।
” अरे हाँ, मेरी दादी, इसमें ढेर सारे पैसे हैं।” श्याम लगभग झल्ला गया था।
” तो फिर इसे फोड़ दो, सारे पैसे निकल जायेंगे और हम ढेर सारा खिलौना ……..।”
” नहीं, कभी फोड़ना नहीं, वरना मैं तुम्हें पीटूँगा।” श्याम लगभग चीख पड़ा था।
एक निर्धन कृषक परिवार का श्याम कक्षा आठ का होनहार विद्यार्थी था। गाँव में प्राइमरी कक्षा के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था और जो पैसे मिलते थे वह गुल्लक में जमा हो जाता था। घर पर अपनी छोटी बहन रंजना को भी हिन्दी और अंग्रेजी का वर्णमाला पढ़ाना शुरू कर दिया था।
साइकिल उठाकर और नन्हीं रंजना को बिठाकर श्याम बाजार की ओर चल दिया था।
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काल चक्र अपनी गति से गतिमान रहा। श्याम किसी तरह बी0एस0सी0 पास कर चुका था। उसके अध्ययन में आड़े आता रहा– उसके परिवार की निर्धनता। परंतु इस समस्या को वह कभी भी समस्या न समझ कर परिस्थितियों से जूझते हुये सतत् आगे बढ़ता रहा, मंज़िल की तलाश में…..। शायद कहीं छोटी मोटी नौकरी मिल जाय तो वह नौकरी के साथ ही बचे समय में अपना अध्ययन आगे जारी रख सके।
उसके परिश्रम और ईश्वर की अनुकंपा से आवास के निकट ही एक विद्यालय में क्लर्क की नौकरी मिल गई। डूबते को तिनके का सहारा मिल गया था। घर की स्थिति में तनिक सुधार होने में सात-आठ साल लग गये परंतु सामान्य नहीं हो पाई। धनाभाव के कारण रंजना इंटर तक ही पढ़ पाई। ग्रामीण वातावरण के परिवेश ने माता-पिता को रंजना के ब्याह के लिये सोचने पर विवश कर दिया था। यहाँ भी वही समस्या सुरसा की तरह मुँह खोले खड़ी थी–निर्धनता। अच्छे पढ़े-लिखे घर में ब्याहने के लिये माता-पिता के पास उतने पैसे नहीं थे। अंततः पास के ही लगभग दस किलोमीटर दूर एक गाँव के कृषक परिवार में ही रिश्ता तय हुआ। दोनों परिवारों की आर्थिक स्थिति लगभग समान थी। घर में बचे कुछ अनाज एवं थोड़े पैसों से ब्याह संभव न था।
श्याम अभी तक रंजना की हर छोटी बड़ी आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक था। माता-पिता इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे।
रात के भोजन के समय जब श्याम के पिता ने बातों ही बातों में अपनी विवशता प्रकट की तो श्याम ने उन्हें दिलासा दिया—” बापू, आप कतई चिंता न करें, मैं पी0एफ0 से लोन ले लूँगा।”
दूसरे कमरे में बैठी रंजना के कानों में जब श्याम के यह वाक्य पड़े तो उसे प्रतीत हुआ मानों श्याम के पास बहुत बड़ा गुल्लक है, जिसमें ढेर सारे पैसे हैं। श्याम एक एक कर गुल्लक उलट कर तीली से ढेर सारे पैसे निकाल रहा है। अब वह खुशी-खुशी अपने साजन के घर चली जायेगी। वह जानती थी कि उसका भाई उसकी खुशियों का दम नहीं घुटने देगा।
अंततः वह दिन भी आ गया। रंजना रोती बिलखती वर्तमान डेहरी त्याग कर साजन के डेहरी की शोभा बन गई। ससुराल में कुछ दिन बिताकर जब रंजना घर लौटी तो माता-पिता उसका कुशलक्षेम पूछने लगे। उसने सब कुछ बताया फिर पड़ोस के रन्नो चाची के यहाँ चली गई।
श्याम थका हारा ऑफिस से लौटकर अपने छोटे से अध्ययन कक्ष में सुस्ताने लगा। रंजना को ज्योंहि श्याम के आने के खबर लगी, वह दौड़ते हुये श्याम के पास पहुँच गई। श्याम लगभग चौंक पड़ा— ” अरे मेरी रंजू बहना, कब आई तू?” परिणय के पश्चात् श्रृंगार युक्त बहन को देखता ही रह गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था वह स्वयं उसका छोटा भाई है और रंजना बड़ी हो गई है। ध्यान भंग कर उसने क्रम जारी रखा–” ससुराल में सब ठीक तो है ना?”
” हाँ भइया, सब बहुत अच्छे हैं। परन्तु ……।”
” परन्तु क्या?” श्याम अवाक हो गया था।
” कुछ नहीं….., सब ठीक है भइया।” कहकर रंजना वापस मुड़ना चाह रही थी पर श्याम उसके आगे अवरोध बन कर खड़ा हो गया था।
” नहीं, तुम कुछ छुपा रही हो, रंजू तुम्हें बताना ही होगा।” श्याम ‘परंतु’ से संबंधित समस्या जानना चाहता था। रंजना माता-पिता की आर्थिक स्थिति से परिचित थी और बचपन से उसकी लगभग हर आवश्यकताओं को श्याम ही पूरा करता था, इसलिये उसने माँ और बापू से कुछ नहीं कहा। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि श्याम उसकी समस्या सुने बिना नहीं हटेगा तो अंततः उसने कह ही दिया।
” भैया………. वहाँ शौचालय नहीं है।”
” धत्त तेरे की, बस इतनी सी बात, और तो सब ठीक है न?” श्याम उसकी सारी समस्याओं को जान लेना चाहता था।
” हाँ भैया, ईश्वर की कृपा से बहुत अच्छा परिवार मिला है।” रंजना ने भाई को दिलासा दिया।
” तू चिंता मत कर, कुछ सरकारी सहायता मिलती है और कुछ पैसे मैं दे दूँगा, समस्या खत्म…..।” और हँसता हुआ आंगन में हैंडपंप की ओर चला गया था।
रंजना को पुनः ऐसा प्रतीत हुआ कि श्याम एक बड़े से गुल्लक के छेद से खन्-खन् कर सिक्के गिरा रहा है। ढेर सारे सिक्के इकट्ठे हो चुके हैं और उसकी समस्या का समाधान यूँ चुटकियों में हो गया है। सर झटक कर उसने ध्यान भंग किया तत्पश्चात् किचन की ओर वह चली गई थी।
कुछ दिन बीतने के उपरांत रंजना पुनः अपने ससुराल चली गई थी और श्याम शौचालय हेतु सरकारी सहायता के लिये भाग-दौड़ करने लगा था। लगभग डेढ़ महीने की मशक्कत रंग लाई और वह कामयाब हो गया था। शेष राशि उसने अपने भविष्य निधि से निकाल लिया था।
अवकाश के दिन सारे पैसे और सरकारी आदेश ले कर वह साइकिल से चल पड़ा था– अपनी रंजू बहन के यहाँ। बहन के घर से मात्र पाँच सौ मीटर दूर अचानक—- पीछे से आती एक बेकाबू ट्रक ने उसे जोरदार टक्कर मारी और फिर एक पेड़ से टकरा कर रुक गया। जोर से धड़ाम की आवाज हुई और श्याम औंधे मुँह गिर पड़ा था। मुँह और नाक से रक्त बहने लगा था। वह बेसुध सड़क पर गिरा था, साँसें चल रही थी। आसपास के ग्रामीण दौड़कर आए और उसे सरकारी एंबुलेंस पर लादने की तैयारी करने लगे। उधर किसी ग्रामीण ने रंजू को इस हादसे की खबर दे दी।
बदहवास रोती बिलखती दौड़ती हुई वह घटना स्थल पर पहुँच गई थी। भाई को दुर्घटनाग्रस्त देखकर वह चीख पड़ी, फूट-फूट कर रोने लगी। ग्रामीण उसे ढाढ़स बंधा रहे थे। एंबुलेंस आ चुकी थी और वह भाई के साथ उसमें बैठ कर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जा रही थी। श्याम अब भी बेसुध था और रंजना के आँसू नहीं थम रहे थे।
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में स्थिति देखकर चिकित्सकों ने उसे मेडिकल कॉलेज ले जाने की सलाह दी थी। तुरत उसी एंबुलेंस से उसे मेडिकल कॉलेज ले जाया गया था।
चिकित्सकों ने उसे एडमिट कर डिप चढ़ाना शुरु कर दिया था और साँस नियंत्रण के लिये ऑक्सीजन का मास्क लगा दिया था। सिरहाने पर रंजना सुबकती हुई बैठी थी। लगभग आधे घंटे के पश्चात् श्याम के तन में थोड़ी सी हरकत हुई, उसकी आँखें हल्के से खुली, एक धुंधली सी मानव आकृति उसके जेहन में उभरी। उसे लगा यह उसकी बहन रंजना ही है। अत्यंत कठिनाई से दाहिने हाथ उठाकर उसने रंजना के गालों पर बहते आँसुओं को अपनी हथेलियों में समेट लिया था मानो कह रहा हो- बहन रंजना, रंज ना होना….. । रंजना फफक कर रोने लगी। फिर अपने पैंट की जेब में हाथ डालकर अत्यंत कठिनाई से एक कागज का टुकड़ा और नोटों की गड्डी निकाल कर रंजना की ओर बढ़ा रहा था, मानो कह रहा हो— ये ले तेरी अमानत…….। अचानक……….एक जोर की हिचकी आई और श्याम की गर्दन एक ओर लुढ़क गई थी। वह सदा के लिये खामोश हो गया था। उसकी मुट्ठी खुली रह गई थी। रंजना चीख उठी। भाई के सीने पर सिर रख कर बिलख-बिलख कर रो रही थी। श्याम की मुट्ठी में दबे कागज और नोटों की गड्डियाँ उसने सहेज लिया था। उसने देखा वह कागज, शौचालय के लिये सरकारी आदेश था। रंजना अवाक् रह गई।
उसे लगा आज उसके कारण ही गुल्लक फूट गया है और यह सरकारी आदेश तथा नोटों की गड्डियाँ उसी गुल्लक से निकले हैं। फिर वह रो-रोकर चीख-चीख कर कहने लगी—” भइया, तुम कहते थे न गुल्लक मत फोड़ना, वरना मैं तुम्हे पीटूँगा।” आज मैंने गुल्लक फॊड़ दिया है भइया, मुझे पीटो, खूब पीटो……। और उसके निर्जीव हाथों से अपने गालों पर पीटने लगी।
“………. मैं तुमसे कुछ नहीं माँगूगी, मत छोड़कर जाओ भइया।” और रोते-रोते वह बेसुध हो कर गिर पड़ी थी।
—— भागीरथ प्रसाद