4. गुलिस्तान
हर रात तनहाई में दिल को बुझाकर हौले से,
जागा था अश्कों को छुपाकर सीने में मेरे;
खतों में अश्क किसी और के होते थे क्या,
तनहाई भरी रातें भी थी शामिल जिनमें।
मज़दूरों की बस्ती में हम तेरे आशिक बन के फिरे,
इश्क की मिट्टी का घरौंदा और खुश्बू तुम्हारी;
खतों में समर्पण किसी और का था क्या,
आधा वो घरौंदा था शामिल जिनमें।
बरामदे तुम्हारे छान आया हूँ मेरा ज़िक्र नहीं वहाँ,
खतों में शामिल कोई और था बरामदे की वो शाम थी जिनमें;
वो ताज्जुब करते रहे आबाद गुलिस्तान की सूरत पर,
हम हैरान होते रहे वो गुलिस्तान कभी हमारा था।
~राजीव दुत्ता ‘घुमंतू’