गुलाबी शहतूत से होंठ
गुलाबी शहतूत से होंठ
जिनसे..
एक एक शब्द
प्रेम से पगा
ऐसे स्फुटित होता था
सैकड़ों गुलमोहर
जैसे एक साथ झर रहे हों
वो शिद्दत से याद आ रही है
वो आंखे याद आ रहीं हैं
ब्रह्मांड के समूचे प्रेम को
गूंथ कर भी जो कल्पना में
नहीं आ सकतीं
वो चितवन…
वो अदा.. वो नफासत… पर
एक पल में झटक देता हूँ
अब …..
इस डर से कि..
उसे देखने भर से
फिर मोहब्बत ना हो जाए कहीं .. ..
उसकी किसी तस्वीर को
अब कभी गौर से नहीं देखता
वो पर्याय है भूली कविताओं का..
बिसरी स्मृतियों का
विसर्जित दुखों का……
विसर्जित.. और त्याज्य का मोह व्यर्थ है
उसके लिए बहते आँसू व्यर्थ हैं
ये व्यथा व्यर्थ है….
सब…व्यर्थ ही तो है
हिमांशु Kulshrestha