गुरु महिमा
गुरु महिमा
निर्भीकता से सम्मान हमेशा बचती है।
पुलकित हर्षित भाव कथानक रचती है।
मृदुलवाण होकर जो कर्तव्य निभाए।
उनके वाणी में सदैव अमरत्व समाए।
जिनके पग तल मैंने स्वर्ग भी पाया है।
शीश उन्हीं के सम्मुख सदा झुकाया है।
डिगते डग को उनसे मिली ये ताकत है।
और डरे शब्दों को मिली हिमाकत है।
उन के चरणों की महिमा है अपरम्पार
उनके दिव्य शिखाओं पर सृष्टि का भार।
क्षण क्षण उनके ही मन में तो चलती है।
कण कण उनके ही सांसों में बहती है।
जिसने दिव्य शिखाआें में विध्वंस संभाला।
प्रेम उजागर करती है तुलसी की माला।
उनके पुण्य जनेऊ में अरमान बंधी है।
तैंतीस कोटि देवों की सम्मान बंधी है।
उनको देवों ने देवों से बढ़कर माना।
रणभूमि की रक्त सोखती जिनकी बाना।
एक गुरु जो क्रोधित हो तो परशुराम है।
उसी क्रोध की मर्यादा से त्राहिमाम है।
प्रलय गोद लेकर खुद का जो तन दहकाए।
स्वयं दधिचि अस्थि दान कर वज्र बनाए।
लाखों उपमा अलंकार जिससे आए।
शब्द शब्द को सघन शिल्पता भाव दिलाए।
वर्ण वर्ण में आतुरता है वरण करें।
और स्वप्न के शैलाबों को शरण करें।
गुरु के महिमा से चिंगारी अर्घ्य बने।
चंद्रगुप्त चाणक्य के पग तल सूर्य बने।
कल्पित भाव से ऊपर उठकर गुरु हुए।
जैसे मानो भूपर ईश्वर गुरु हुए।
परिवर्तन है सघन शाश्वत इस भू पर।
शब्द हुए परिवर्तित गुरु हुए टीचर।
कलयुग की काली नागिन ने दंश किया।
संस्कार का क्षरण किया विध्वंश किया।
पग छूना जब इस युग में अभिशाप हुआ।
शिक्षक होकर शिक्षक रहना पाप हुआ।
शिक्षा नैतिक हुई मगर शिक्षक का क्या?
पुण्य ज्ञान के प्रवर्तक रक्षक का क्या?
लोकतंत्र के गलियों में उन्माद नया।
शिक्षक डांट लगाए तो अवसाद नया।
सीएम पीएम की पदवी सब छोटी है?
पर लोकतंत्र की माया अदभुत खोटी है।
गुरु जो बोरे तम को तारे ज्योति को।
आज सड़क पर आए मुद्दा रोटी है।
लोकतंत्र मूर्खों का शासन है सुन लो।
और यहां नेता दुःशासन है सुन लो।
शिक्षा नीति न्याय गूंजती चित्कारें।
रोज बदलती है द्रौपदी की किरदारें।
यहां द्रौपदी शिक्षा बन अबला होकर।
मांग रही है गुरु कृष्ण सा परमेश्वर।
कविता लिखते लिखते मुझसे भूल हुई।
गुरु महिमा लिखकर तन स्थूल हुई।
एक कवि गुरु का महिमामंडन कर के।
कैसे याद न रखता अभिनंदन कर के।
जिस गुरु तत्व ने भारत को उद्धार किया।
लोकतंत्र ने उन गुरुओं को मार दिया।
संस्कार हैं क्षरित सभासद मौन रहे।
न्याय देखने को आतुर कब द्रोण रहे।
खुद का कृष्ण बनो मन में रण होने दो।
और स्वयं को ज्ञान बीज अब बोने दो।
इतना सोचा और उठाया कलमायुध।
सिर्फ़ युद्ध में साथी होता है आयुध।।
द्वंद पले मन में तो आखिर क्या करना?
खुद से करूं बगावत या फिर दूं धरना?
गुरु शब्द का अर्थ समुचित उपयोगी।
गुरु वही जो शिव शंकर सा हो योगी।
देवों में जो द्वंद कराए अमृत प्याला।
तब किसकी चाहत में होगी पेय विषाला।
भला कौन चाहेगा घायल हो शुष्मिणा।
और सगर मंथन से निकला विष पीना।
सबकी इच्छा कठिन परीक्षा से गुजरे।
वो महादेव जो विष पीने से ना सिहरे।
जो विषपान करे गंगा को भाल समेटे।
कौन दिवंगत होकर कंठन सर्प लपेटे।
चंद्र भाल पर खुद लाएगा आदियोगी।
गुरु वही जो शिव शंकर सा हो योगी।
©® दीपक झा रुद्रा