गुरुजी!
क्यों रे फलाने के छोरे! जरा इधर तो आ! पिताजी के नाम को संबोधित करते हुए गुरुजी ने आवाज लगाई। मैं कुछ डरा हुआ- सा तथा कुछ सहमा हुआ-सा हृदय में कंपन महसूस करते हुए जैसे आज किसी अपराध का दण्ड मिलने वाला है। अपराधिक दृष्टि से देखते हुए गुरुजी के पास पहुँचा। क्या गुरुजी! मैंने उनके चरण स्पर्श करते हुए कहा। कल तुम लोग हनुमान जी के मन्दिर वाले बगीचे में क्या कर रहे थे? गुरु जी ने शब्दों का एक बाण चलाया अब मेरी आशंका भय का रूप धारण करने लगी। मैं समझ गया था कि आज मुझे दण्ड अवश्य ही मिलने वाला है। गुरु जी! हम तो वहाँ माचिस तथा सिगरेट के खाली खोखे ढूंढ रहे थे। टरक बनाने के लिए। मैंने शब्दों की ढाल बनाते हुए कहा। अच्छा! तुम्हारे साथ और कौन- कौन थे? गुरुजी ने एक प्रश्न और दागा। एक तो गनेश था, एक परविन था, दादा थे तथा बड़ा गनेश भी था। मैंने तोतली वाणी से उत्तर दिया। अच्छा यह बताओ कल आम पर से कच्ची केरियाँ किसने तोड़ी थी? गुरुजी ने एक शब्द- बाण और छोड़ा। अब मैं समझ चुका था कि गुरु जी ने यहाँ माता जी की बाग में से ही बैठे हुए वहाँ हनुमान मंदिर के बगीचे में हमें केरियाँ तोड़ते हुए देख लिया होगा। किंतु फिर भी मैंने एक बार फिर अपने शब्दों की ढाल बनाई। गुरुजी! हमने नहीं तोड़ी। अच्छा बेटा! किन्तु माली बाबा तो कह रहे थे कि कैरियाँ तुमने ही तोड़ी है। अब मैं उनके इस ब्रह्मास्त्र का क्या तोड़ निकालूंँगा कुछ समझ नहीं आ रहा था। क्योंकि माली बाबा उस समय वही थे जब हम केरियाँ तोड़ रहे थे। संभवतः उस समय हम माली बाबा को चकमा देने में सफल रहे होंगे ऐसा हम सोच रहे थे, किन्तु यह हमारा धोखा था।
मैं दस वर्ष का अबोध बालक उस सन्यासी, देव-तुल्य, तपस्वी साधु के विनोद पूर्ण भाव को क्या समझ पाता कि वह मेरी इन बाल सुलभ चेस्टाओं का वात्सल्य आनन्द ले रहें हैं।
आज से ठीक दो दिवस के पश्चात कुण्डी वाली माता रानी के इस बगीचे में जहाँ माता रानी का मन्दिर विद्यमान है एक महायज्ञ का प्रारंभ होने वाला है। जिसके प्रमुख सूत्रधार हमारे परम पूज्य गुरु जी! ही है। गाँव में लगभग 20- 25 वर्ष के बाद इस प्रकार के महायज्ञ का आयोजन होने जा रहा है। यह मेरे गाँव के लिए बहुत बड़ी बात थी। क्योंकि जब से राजनीति का कुचक्र गाँवों में चलने लगा तब से दो परिवार वाला गाँव भी दो पार्टियों में बट कर रह गया है। मध्यप्रदेश में जबसे पंचायती राज्य व्यवस्था लागू हुई तब से गाँव का सुखद वातावरण भी राजनीति की भेंट चढ़ कर दूषित होता चला गया । सत्ता के लालच ने भाई को भाई का दुश्मन बना दिया तब मेरा गाँव भी इससे कब अछुता रह सकता था। आज मेरा गाँव भी दो पाले में बट कर रह गया था। ऐसे में एकमात्र आधार गुरु जी ही थे जो ध्रुव तारे के समान मार्ग प्रशस्त करते थे।
वह सन्यासी इस गाँव का ना होते हुए भी ना जाने उन्हें इस गाँव से इतना लगाव कैसे था? गुरु जी का गाँव लगभग मेरे गाँव से डेढ़ सौ- दो सौ किलोमीटर दूर स्थित है जहाँ गुरु जी का एक बड़ा-सा आश्रम है। यहाँ गुरुजी वर्ष-दो वर्षों में एक बार आते और महीने -दो महीने जब तक उनका मन करता अपने हनुमानजी के मन्दिर से सटी हुई कुटिया में रहते थे; वही अपनी भक्ति साधना करते तथा बाग-बगीचे में पेड़-पौधों की देख-रेख क्या करते थे; क्योंकि उन्हें पेड़ -पौधों से अत्यधिक लगाव था। गाँव में उनका बहुत आदर सम्मान था जब तक वह गाँव में रहते थे गाँव के सज्जन उनकी सेवा में तत्पर रहते थे जिनमें से एक मेरे पिताजी भी थे। 4:00 बजे विद्यालय की छुट्टी होने के बाद कभी-कभी हम भी उनके दर्शन के लिए जाया करते थे। कभी पिताजी के निर्देश पर, तो कभी प्रसाद के लालच में क्योंकि गुरु जी अपने सभी दर्शनार्थी को मुट्ठी भर-भर के चना चिरौंजी की प्रसाद दिया करते थे। पता नहीं उनकी इस प्रसाद की गगरी में क्या शक्ति थी जो कभी खाली ही नहीं होती थी।सही मायने में वे एक त्यागी थे जो केवल देना जानते थे। चाहे ज्ञान का अमृत हो या जीवन की शिक्षा उनके पास जाकर सभी अपना बेर -भाव भूल कर एक हो जाते थे।
संभवतः मेरे गाँव के लोगों की निर्दोष भक्ति के अलावा यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य ने भी उन्हें आकर्षित किया होगा। एक ऊँची टेकरी पर बसा हुआ मेरा गाँव जिसके चारों -ओर लम्बी-लम्बी घाटियाँ फैली है जो उस समय सीताफल के वृक्षों से आच्छादित थी। घाटी के नीचे उतरते ही हरे भरे खेत खलियान और कुछ दूरी पर जाते ही छोटी नदियाँ उसके आगे फिर खेत जो विंध्याचल पर्वतमाला तक सटे हुए है। पहाड़ों पर से गाँव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है मानो पहाड़ों से गाँव तक एक रश्मि सेतु रवि ने प्रभात में निर्मित कर दिया हो। यह दृश्य मैं कभी-कभी इन पहाड़ियों से देखा करता था ,जब मैं अपने ननिहाल पहाड़ों से होकर जाता था, क्योंकि पहाड़ी के उस पार मेरा ननिहाल है। उस समय साधनों का अभाव होने के कारण हम अक्सर इन पहाड़ों को पार कर पैदल ही वहाँ जाया करते थे। किन्तु आज स्थिति अलग है आज हर जगह आधुनिकरण दिखाई देता है। उन विंध्य पर्वत मालाओं में अब बड़े-बड़े बिजली के पंखे लगे हुए हैं और गाँव का सौंदर्य भी अब वह नहीं रह गया हर जगह मशीनों की कर्णघातक ध्वनि से वातावरण भरा पड़ा है। गाँव की उन्ही घाटियों के एक रास्ते पर मध्य घाटी पर हनुमान जी का मन्दिर स्थित है जिसके प्रांगण में लगभग एक एकड़ का बगीचा फैला है। जिसमें आम, अमरूद, संतरा, चमेली, पीपल व एक वट- वृक्ष के अतिरिक्त अनेक प्रकार के पुष्पों के वृक्ष और पौधे लगे हैं। उसके आगे घाटी उतरने के बाद ही कुछ दूरी पर कुण्डी वाली माता रानी का मन्दिर स्थित है। हम गाँव वाले तो उन्हें कुण्डी वाली माता रानी ही कहते हैं क्योंकि हमारे मालवा क्षेत्र में गाँव के अन्दर जो कुएँ होते हैं उन्हें कुण्डी की संज्ञा दी गई है। खेतों पर इन्हें कुएँ कहा जाता है तथा गाँव में कुण्डी पता नहीं यह परंपरा कब से चली आ रही है। अब क्योंकि मंदिर के दो प्राचीर से सटी हुई दो कुण्डियाँ है एक पश्च भाग में और एक बाँयी और जो गाँव की प्यास बुझाती है इन्ही कुण्डियों से पानी गाँव में ऊँचाई पर स्थित टंकी में जाता है। तथा वहाँ से पूरे गाँव में पाइपों के जाल बिछे है जिनके द्वारा पेयजल का वितरण होता है नल की यह पेयजल योजना तब से प्रारंभ हे जब कि गाँव में बिजली भी नहीं आई थी ऐसा पिताजी कहते हैं। पहले इंजन और बाद में बिजली पंप से पानी का वितरण होने लगा।
मैंने एक बार फिर अपने शब्दों की ढाल बनाने का प्रयास किया। गुरुजी! माली बाबा को ठीक से नहीं पता, हम तो पेड़ पर से सिगरेट का खोखा गिरा रहे थे। अच्छा! तो यह बता वहाँ खोखा पहुँचा कैसे? गुरुजी ने ठिठोली करते हुए कहा। पता नहीं गुरु जी! पर हाँ हमने जितेन को वहाँ से केरी ले जाते देखा था। मैंने बात को दूसरी तरफ मोड़ने का प्रयास किया। मैं निर्दोष मिथ्यावादी बनने का प्रयास कर रहा था, किन्तु मैंने जितेन पर मिथ्या आरोप ना लगा कर स्वयं बचने का मार्ग बनाया क्योंकि एक दिन पहले उसे वहाँ से केरी ले जाते हुए हमने देखा था। किन्तु दोषी तो हम भी थे। ठीक है तो कल जितेन को बुलाकर लाना? गुरुजी ने आदेश दिया। और आज के लिए मैंने सकून की सांसे ली किन्तु अभी भी भय मुक्त नहीं था। क्योंकि कल फिर गुरुजी के सम्मुख अपराधी बन कर प्रस्तुत होना है।
आज शाम हमारी केरी-चोर मण्डली ने सभा लगाई। गुरु जी के साथ हुई चर्चा का मैंने सारा वृत्तांत सुनाया और यह योजना बनाई गई की जितेन को गुरुजी के सम्मुख किस प्रकार ले जाया जाए। बाल स्वभाव के अनुसार कुछ समझा कर तथा कुछ डराकर जैसे-तैसे हमने जितेन को गुरुजी के पास जाने के लिए राजी कर लिया। किन्तु हम यह नहीं जानते थे कि जिस महापुरुष को बहलाने का प्रयास कर रहे हैं वह तो सब कुछ जानने वाले है। वह तो मात्र हमारे बाल सुलभ मनोहारी निर्दोष चेष्टाओं का आनन्द ले रहे हैं जिसमें किसी प्रकार का राग -द्वेष नहीं है। क्योंकि मैया यशोदा की मार से बचने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने भी ऐसी कई मिथ्या कहानियाँ बनाई है।”मैया मैं नहीं माखन खायो।” ठीक उसी प्रकार ‘गुरुजी! हम नहीं केरी तोड़ी।’ जिस प्रकार सब कुछ जानते हुए मैया यशोदा कृष्ण प्रेम के वात्सल्य का आनन्द लेती है। वही आनंद हमारे गुरु जी ले रहे थे।
अगले दिन गुरु जी अपने महायज्ञ की रूपरेखा में व्यस्त थे । बारी- बारी से यज्ञ समिति को निर्देशित करते रहते थे। कभी कोई आता कुछ सुझाव लेकर जाता तो कभी कोई दर्शन करने के लिए आता। और हम कुछ दूरी पर उपस्थित होकर इस अवसर की प्रतीक्षा में थे कि उन्हें कब एकान्त मिले और हम उनके पास जाएँ। जब अवसर ना मिला तो फिर हम व्यस्तता में ही उनके पास चले गए और जितेन को उनके सम्मुख अपराधी बनाकर प्रस्तुत कर दिया। किन्तु हमें यह डर अवश्य था कि गुरु जी जितेन के साथ- साथ हमें भी थोड़ा बहुत दण्ड अवश्य देंगे। और फिर घर पर पिताजी को पता चला तो उनके प्रहार से बचना तो असंभव है। और पिताजी को पता तो अवश्य ही चल जाएगा । किन्तु हुआ वह जिसकी हमें थोड़ी- सी भी आशा नहीं थी।
गुरुजी ने बड़े ही स्नेह- भाव से मधुर मुस्कान के साथ हमें समझाया कि इस प्रकार कच्चे आम तोड़ना ठीक नहीं है। क्योंकि वह कमली आम का वृक्ष अभी छोटा है, और उस पर थोड़े से ही आम आए थे। मैं चाहता था कि वह आम बड़े हो। और पकने के बाद मैं उन्हें प्रसाद के रूप में देना चाहता था। खेर! अब जो आम बचे हैं उन्हें मत तोड़ना। और यज्ञ के कार्यों में अपनी क्षमता अनुसार हाथ बटाना। बगीचे की सफाई तथा बाहर से आने वाले अतिथियों के जलपान में सहायता करना। जी गुरु जी! हमने गुरुजी के चरण स्पर्श किए तथा उन्होंने हमें प्रेम पूर्वक आशीर्वाद दिए और फिर अपने मार्गदर्शन के कार्य में लग गए।
उस वर्ष गुरु जी के मार्गदर्शन में महायज्ञ शान्तिपूर्वक संपन्न हुआ। सभी गाँव वाले अति प्रसन्न थे।
इस महायज्ञ की शान्तिपूर्ण सफलता के बाद गाँव वाले अति उत्साहित थे उन्होंने अगले वर्ष फिर एक और महायज्ञ का आयोजन करने का निश्चय किया। यह यज्ञ भी उसी स्थान पर गुरु जी के मार्गदर्शन में आयोजित किया गया इस नौ दिन के यज्ञ में अन्तिम आहुति तक संपूर्ण कार्य सुचारू ढंग से चला किन्तु राग, द्वेष, ईर्ष्या तथा अहंकार की आहुति अभी तक भी नहीं हुई थी। यज्ञ की अन्तिम आहुति के बाद जुलूस में राक्षसी राजनीति की ऐसी कु- दृष्टि पड़ी कि शान्ति और सौहार्द का वातावरण कब दंगे में परिवर्तित हो गया पता ही नहीं चला। इस अप्रिय घटना से गुरुजी बहुत आहत हुए। उनका यज्ञ करने का जो उद्देश्य था कि गाँव में सौहार्द और भाईचारे का वातावरण तैयार हो वह पूर्ण नहीं हो पाया। गुरु जी अपने गाँव वाले आश्रम पर लौट गए थे।
कुछ वर्षों के पश्चात गुरुजी के आश्रम से गाँव में एक दु:खद सूचना आई के गुरु जी ने अपनी भौतिक देह त्याग दी है।वह दिव्य आत्मा अब परमात्मा में विलीन हो चुकी है। किन्तु देह त्यागने के पूर्व वे अपने शिष्यों को कह गए थे कि मेरी इस देह को तब तक अग्नि देव के सुपुर्द ना किया जाए जब तक की यहाँ के लोग वहाँ जाकर उनकी देह के अंतिम दर्शन ना कर ले। नम आँखों से गाँव के कई सज्जन भक्त वहाँ उनकी देह दर्शन के लिए गए। तत्पश्चात उनके पवित्र देह को अग्नि देव को सौंपा गया।
साधू ऐसा चाहिए, जैसे सूभ सुभाय।
सार सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय।
-विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’
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