गुमनाम पतझड़ के
मै गुमनाम बन चला इस पतझड़ के
किस करीनों से कहूँ क्या गुमशुम व्यथाएँ ?
तस्वीर भी टूटी किस दर्रा में फँसी जा
खोजूँ , विकलता के किस ओर गयी उमड़
टेढ़ी – मेढ़ी लकीर भी हक नहीं लगाती चलूँ किस ओर ?
आँशू भी टुबूक – टुबूक गिर रही नयनों से धार
यह धार बह चली सब , अब ये भी सुकून नहीं
सुनसान राहों में मैं अकेला , कोई पूछें नहीं , बस अकेला
मत रोक मेरे तरंगिनि हृदय को , जानें दो , जानें दो…..
किन्तु फिर भी छोड़ चलें वों किस गति , वक्त भी गई बीत ?
वक्त बह चली धूल के गर्दिशों में नहीं मेरे कोई सहारा
एकान्त , अंधेरी राहों में न कोई दिखा छिद्र – सी प्रकाश
लौटू भी कैसे मंजिल भी घूम गई इन गर्दिशों के कण में
ढूंढते ढूंढते थक गया , अब वक्त भी चला इंतकाल की ओर
स्वप्न भी धुंधली – सी , न दिखा सांस भी गुम गई किस किनारे में ?
पल – पल भी विकलता थी , तोय – वात भी नहीं , यह दोज़ख या बिहिश्त
याद क्यों करूँ वो खल जहाँ मिली तिमिर ही तिमिर सन्ताप असह्य ?
दर – दर भटका उस ओक – यह ओक शोणित सदा मैं , जानें मुझे कौन ?
खौफ – सी थी मेरी केतन , अर्क तो मेरी पर के गो प्रतीर
मीत मेरी अवपात बचा जो मिली उस अंधेरी असित रन्ध्रों में