गुब्बारे वाला
हाय गरीबी इस तरह,बनी गले की फाँस ।
गुब्बारे में कैद कर, चला बेचने साँस।।१
गुब्बारे में भर दिया, अपना सारा दर्द।
बिखर गया हूँ टूट कर, जैसे पत्ते जर्द।। २
सड़क किनारे हूँ खड़ा,फटा हुआ पतलून।
रुग्ण कंठ से कह रहा, ले लो ये बैलून।।३
इन गुब्बारों की तरह, फूट गई तकदीर।
फटी हुईं है ज़िन्दगी, दुर्बल हुआ शरीर ।।४
करुणा क्रंदन से भरा, मन में है गुब्बार।
नित्य दिवस करता रहा, सपनों का व्यापार।। ५
भीख नहीं मैं माँगता,पड़ी वक्त की मार ।
गुब्बारे को बेचकर, पाता पैसे चार।। ६
गुब्बारे सी जिन्दगी,उल्टे सीधे मोड़।
कभी फुलाता हूँ इसे ,कभी दिया मैं फोड़।। ७
इन गुब्बारों की रही, फितरत बड़ी कमाल।
मालदार ही खेलता,बेच रहा कंगाल।। ८
दो रोटी के वास्ते, बेच रहा बैलून।
बिक जाते जिस दिन सभी, मिलता बड़ा सुकून।। ९
छोटा गुब्बारा मगर, बड़ी-बड़ी सी सीख।
दे किस्मत धोखा अगर, नहीं माँगना भीख।।११
इन गुब्बारों की तरह,भाग्य गया था फूट ।
जीवन जी पाया नहीं, साँस रही है छूट।।१२
नहीं समझ पाया कभी, इस जीवन का अर्थ।
गुब्बारे में भर दिया, अपनी साँसे व्यर्थ।।१३
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली