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13 Sep 2022 · 1 min read

गुत्थी आजादी की

———————————–
गुलामी की परिभाषा
जंगल से लेकर शहर तक
विषम नहीं है।
रात की परिभाषा सूर्य का
नहीं होना है।
लाख रौशनी कर लो।
कंधे पर बोझ होने का अहसास
मन में द्विधा होने का आभास
अद्वितीय आजादी की
अनुपस्थिति की तरह चुभता है।

इस युग ने आजादी को विज्ञापन
बना दिया है।
इसके लिए
सैनिकों की भर्ती की अनिवार्यता
स्थापित कर दिया है।
नारे गढ़े जाने लगे हैं।
लोभ और लालच के
गाने गाए जाने लगे हैं।

रास्ते और पगडंडियों पर
खत्म हो चुकी है
निर्विकार घूमने की आजादी।
छिना-झपटी की आशंकाओं ने
अनगिनत छुरियाँ मन और तन में
एक झटके से खोलकर खड़ा कर दिया है।
इसे गुलामी कह देने में
कुछ गलत तो नहीं है।
हर स्पंदित चीज
जीवन से खत्म होने तक
आशातीत ढंग से वेदना से
भर गया है।

आजादी आत्महीनता की अवस्था में
हमारे कंधों पर लटक कर
हमसे ही विद्रोह करने की कथा
लिख रहा है।
हर दर्जे की भूख और प्यास से
क्षत-विक्षत देह और आत्मा को
आजादी की आवश्यकता है।
किन्तु,निर्धारण तो देह और आत्मा की
गुलामी से ही होना है।
और आजादी को
इसी बात का रोना है।

गोदामों में अकूत धान्य भरे हों
आबादी मिट्टी में कंद खोजता फिरे।
और विद्रोह की अनुपस्थिति।
दुकानें आकंठ संसाधनों,प्रसाधनों से
सजी हों
वासिंदे ऐश्वर्य और सौंदर्य को तरसें।
गुलामी की पराकाष्ठा ही तो है।
आजादी की गुत्थी यहाँ उलझी हुई है।

मौन को श्मशानों में नहीं
चहल-पहल भरे स्थानों में
तोड़ना है।
———————————————-
अरुण कुमार प्रसाद 12/9/22

Language: Hindi
93 Views
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