गीत
गीत :
नित करूंगा बात तुमसे
कोई सम्बोधन न दूँगा
सब तुम्हे अर्पण करूंगा
किन्तु अपना मन न दूंगा
फूल सा दिन में खिला हूँ शाम को मुरझा रहा हूँ
पर ख़ुशी इस बात की
कुछ देर तो इठला रहा हूँ
कुछ सुमन दे दूंगा तुमको
समूचा उपवन न दूँगा
याद आता है सदा ही
खेलता बचपन सुहाना
कागजों की किश्तियों को
दूर तक जल में बहाना
पूरा यौवन भले ले लो
सुनहरा बचपन न दूँगा
चेहरे पे चेहरा चढ़ा कर
घर से बाहर निकलते हो
एक छलिये की तरह तुम
रूप अपना बदलते हो
सब मुखौटे सौंप दूंगा
एक भी दरपन न दूंगा
बंद कमरों की घुटन में
ज़िन्दगी पथरा रही है
तोड़ अब सारी दीवारें
सांस लेने आ रही है
घर महल सारा ही ले लो
बस खुला आँगन न दूंगा
–हेमन्त सक्सेना–