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8 Oct 2018 · 1 min read

गीत

“शुष्क धरा की प्यास बुझाएँ”
***********************
वृक्ष, पवन, जल छिनते जाते
जन-जीवन को आज बचाएँ
दूषित नदियाँ सूख रही हैं
शुष्क धरा की प्यास बुझाएँ।

ज्वलित चिमनियों से दम घुटता
भटक रहे खग-जन झुलसाए
बरगद , गाँव, खलिहान रहे न
भूखे कृषक, मनुज अकुलाए।

अंतर्मन रोता धरती का-
पनघट हुए उदास रुलाएँ।
शुष्क धरा की प्यास बुझाएँ।।

बर्बरता से वृक्ष काट हम
साँसें अपनी छीन रहे हैं
बेघर पंछी घर को तरसें
मन मानवता हीन बने हैं।

पेड़ धरा का दुख हर लेते-
पौध लगा विश्वास जगाएँ।
शुष्क धरा की प्यास बुझाएँ।।

फिर से महके जूही, चंपा
सावन रुत मतवाली आए
दूर प्रदूषण जग से करके
घर-आँगन खुशहाली छाए।

धरती का उर सोना उगले-
ऐसा हम उल्लास बढ़ाएँ।
शुष्क धरा की प्यास बुझाएँ।।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

Language: Hindi
Tag: गीत
446 Views
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