गीत (विदाई के समय बेटी की मन: स्थिति)
गीत
(विदाई के समय बेटी की मन: स्थिति)
हृदय चीरती है व्यथा, बहता नयनों नीर।
बाबुल तेरी लाड़ली, कैसे बाँधू धीर।
पाया लाड़ दुलार है,पाई निर्मल प्रीत।
बाहों का झूला मिला, जीवन का संगीत।
पहले घुटने मैं चली, पीछे अंँगुली थाम।
तेरे अंँगना की पली, कहीं मुझे क्या काम।
कह न सकूंँ मन की व्यथा, पिघल रही है पीर ।
बाबुल तेरी लाड़ली, कैसे बांँधू धीर।।
मांँ की लोरी, पालना, बचपन के वह खेल।
मेरा पढ़ना सीखना, वह सखियों से मेल।
होली, राखी, दिवाली, वह संझा की भीत।
सब कुछ था मेरे लिए, व्रत उत्सव औ गीत।
*कैसे नियम विधान यह , मन तड़पे ज्यों कीर।
बाबुल तेरी लाड़ली, कैसे बांँधू धीर।।
भैया मेरा लाड़ला, बिलख रहा कर जोड़।
कैसे मैं धीरज धरूं, कैसा जीवन मोड़।
उसके संँग खेली, बढ़ी, लाड़ लड़ाए खूब।
राखी, भैया दूज पर, रही प्रेम में डूब।
नहीं मुझे कुछ सूझता, चुभा हृदय में तीर।
बाबुल तेरी लाड़ली, कैसे बांँधू धीर।।
सपनों के संसार में, चरण रखत (रखूँ) मन भीत।
अनजाने संँग जोड़ लूंँ, कैसे मन की प्रीत।
आधा जीवन इस तरफ, आधा है उस पार।
बिखर-बिखर कर बह रहा, मन का पारावार।
सोनचिरैया मातु की, मैं मैके की हीर।
बाबुल तेरी लाड़ली, कैसे बाँधू धीर।।
मैं कैसे बांँधू धीर……
इंदु पाराशर
________________________