दर्द का यह काफिला
प्यार उनसे कर के मुझको, क्या बताएँ क्या मिला।
अब कहाँ जाने रुकेगा, दर्द का यह काफिला।
जान कहते थे मुझे जो, जान लेकर चल दिए।
प्यार का सपना दिखाए,और मुझको छल दिए।
दिल लगाने का मिला है, यार यह कैसा सिला।
अब कहाँ जाने रुकेगा, दर्द का यह काफिला।
हर तरफ वीरानियाँ हैं, राह दिखती है नहीं।
संगदिल को आज मेरी, आह दिखती है नहीं।
तोड़ कर दिल चल दिया, फिर भी नहीं मुझको गिला।
अब कहाँ जाने रुकेगा, दर्द का यह काफिला।
उम्र भर का कह रहा था, दो घड़ी ना चल सका।
अंकुरित होकर भी मेरा, प्यार क्यों ना पल सका।
पुष्प अरमानों का मुरझाया हुआ है अधखिला।
अब कहाँ जाने रुकेगा, दर्द का यह काफिला।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य’
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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