गीत
‘रेत’
#सघन मित्रवत साथ रेत का,
तेरी याद दिलाता है।
मंद पवन का झोंका छूकर,
दे संदेश रुलाता है।।
#रेत समेटे अहसासों की,
सुंदर स्वप्न सजाया था।
कोमल अँगुली के पोरों से,
मिलकर महल बनाया था।
आज निरख कर अवशेषों को-
निश्छल प्रेम सताता है।
सघन मित्रवत साथ रेत का,
तेरी याद दिलाता है।।
धवल यौवना झूम रही थी,
आँचल भू महका धानी।
#सीप बनी थी रेत बूँद पी,
केशों से टपका पानी।
खोज गहन है ढूँढ़ न पाऊँ-
याचक मन तड़पाता है।
सघन मित्रवत साथ रेत का,
तेरी याद दिलाता है।।
#रेत बिछौना खग का कलरव,
लोरी गा दुलराता था।
जल की थपकी बदन चूमती,
मन भोगी ललचाता था।
#सूर्य रेत लाली छितराकर-
मनोयोग दिखलाता है।
सघन मित्रवत साथ रेत का,
तेरी याद दिलाता है।
#मुठ्ठी में भर रेत पकड़ते,
वक्त फिसलता जाता था।
मन के सँकरे गलियारों में,
सन्नाटा भर आता था।
सूखे आँसू,पतझड़ मौसम-
रोम-रोम कलपाता है।
सघन मित्रवत साथ रेत का-
तेरी याद दिलाता है।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
गीत (16, 14 मात्राएँ)
“वैधव्य”(गीत)
मुखड़ा
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रंग वासंती छिने हैं, ज्वलित मन निर्जन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर,तप्त अब जीवन हुआ है।
अंतरा
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(1)तिमिर सम वैधव्य पाकर,रेत सूखी रह गई,
कामना भी राख बनकर,पीर सारी सह गई।
आँसुओं का शाप लेकर,सुलभ अभिनंदन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर,तप्त अब जीवन हुआ है।
(2)वेदना उर में धधकती,शूल चुभते देह में।
भग्न शोषित बेबसी भी,मौन है सुत नेह में।
रो रही है आज बदली,शून्य अब चिंतन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर,तप्त अब जीवन हुआ है।
(3)कुलजनों के घात सहकर,खो गई अवचेतना भी।
दिश भ्रमित उर वीथियों में,गुम हुई संवेदना भी।
वर्जनाओं के ग्रहण से, सिक्त अब आँगन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर, तप्त अब जीवन हुआ है।
(4)व्योम का दिनकर चमकता,
बन तनय आधार देगा।
दुग्ध का ऋण वो चुकाकर,मान रख विस्तार देगा।
भीति भय की ढह रही है,नव फलित उपवन हुआ है।
ओढ़कर संत्रास मरुधर,तप्त अब जीवन हुआ है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
“कभी खुशी कभी ग़म”
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धूप-छाँव,सावन-पतझड़ सम,
सुख-दुख आते-जाते हैं।
कभी खुशी तो कभी मिले ग़म,
नित इतिहास रचाते हैं।
(1)भुलई खेत फसल लहराई,
व्याकुल मन हर्षाया है।
बन दहेज के दंभी लोभी,
सुगनी को ठुकराया है।
कालचक्र सा घूम रहा है,
सुख-दुख रंग दिखाते हैं।
कभी खुशी तो कभी मिले ग़म,
नित इतिहास रचाते हैं।
(2)मोहपाश में बँध मानव ने,
दानवता अपनायी है।
नील गाय ने फसल उजाड़ी,
कैसी किस्मत पायी है।
शोक हरें बेटी का कैसे?
मातु-पिता घबराते हैं।
कभी खुशी तो कभी मिले ग़म,
नित इतिहास रचाते हैं।
(3)जीवन में अभिशाप बना दुख,
इसका नहीं ठिकाना है।
अतिशय सुख भी दुख का कारण
इस पर क्या इठलाना है?
देख रतन को खड़ा सामने,
अश्रु नयन बरसाते हैं।
कभी खुशी तो कभी मिले ग़म,
नित इतिहास रचाते हैं।
(4)सुख-दुख पंछी इस पिंजर के,
पराधीन शुक रोता है।
कालपाश में फँसी ज़िंदगी,
तिल-तिल जीवन खोता है।
शोक-अशोक नदी के धारे,
ईश्वर पार लगाते हैं।
कभी खुशी तो कभी मिले ग़म,
नित इतिहास रचाते हैं।
(5)सुख में सुख से रहने का दुख,
दुख में दुख अकुलाता है।
सुख आएगा दुख जाएगा,
जीवन यही सिखाता है।
सुख-दुख दो पहलू सिक्के के,
कर्म हमें बतलाते हैं।
कभी खुशी तो कभी मिले ग़म,
नित इतिहास रचाते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
गीत (16, 14 मात्राएँ)
‘मन’
#व्याकुल मन क्या सोच रहा है?
कमी नहीं अँधियारों की।
सपनों की ऊँचाई भर ले,
तज दुविधा अवसादों की।।
खग बन नभ विस्तार नाप ले,
राह चुनौती भारी है।
व्यवधानों के प्रस्तर पसरे,
दुनिया #मन से हारी है।
रुकना नहीं सार जीवन का-
सैंध लगा दीवारों की।
सपनों की ऊँचाई भर ले,
तज दुविधा अवसादों की।।
#आल्हादित मन धीर न खोना,
क्यों तू भावुक होता है?
#निर्मोही मन शंकित होकर,
क्यों तू आपा खोता है?
#मन विचलित होने पर हारे-
चाह नहीं उपहारों की।
सपनों की ऊँचाई भर ले,
तज दुविधा अवसादों की।।
#उद्वेलित मन मुखरित होकर,
कैद मुक्त हो जाता है।
अनिमेष दृगों से अश्रु बहा,
#मन की प्यास बुझाता है।
अधर सजाकर प्रीत निराली-
बात करे गलियारों की।
सपनों की ऊँचाई भर ले,
तज दुविधा अवसादों की।।
निकल तिमिर के बाहुपाश से,
#अंतर्मन उड़ता जाता।
द्वेष, दंभ अरु क्रोध साथ ले,
#पागल मन बढ़ता जाता।
#मन अधीर #मन चंचल बनकर-
आस रखे व्यवहारों की।
सपनों की ऊँचाई भर ले,
तज दुविधा अवसादों की।।
#मन की दृढ़ता जीत मनुज की,
मन धीरज रखवाता है।
संबल दे विश्वास जगाता,
#मन पावन कहलाता है।
वैचारिक गुत्थी सुलझाता-
मौन व्यथा उद्गारों की।
सपनों की ऊँचाई भर ले,
तज दुविधा अवसादों की।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
विषय:-“केसर-घाटी”
विधा:- गीत
छंद :- ताटंक छंद
विधान-16, 14 मात्राएँ (पदांत तीन गुरु से)
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“केसर-घाटी”
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मुखड़ा
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सुत, वनिता का मोह त्याग वो , देश बचाने आया था।
बनकर वो घाटी का सूरज, तिमिर मिटाने आया था।
चिर-निद्रा में वो सोया है,उसे जगाने आयी हूँ।
आज तुम्हें ‘केसर-घाटी’ का,गीत सुनाने आयी हूँ।
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अंतरा (1)
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जो केसरिया बाना पहने,सरहद पर खेला होली।
चंदन-माटी तिलक लगा जो,सीने पर झेला गोली।
रक्त गिरा होगा जब उसका,लावा फूट गया होगा।
आसमान से उल्का का भी,टुकड़ा टूट गया होगा।
उस बलिदानी दीपक की मैं,ज्योति जलाने आयी हूँ।
आज तुम्हें ‘केसर-घाटी का,गीत सुनाने आयी हूँ।
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अंतरा (2)
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उतरी बिछिया,टूटी चूड़ी,वार सहा संहारों का।
मोल नहीं है इस दुनिया में,साजन के त्योहारों का।
श्वेत वसन पहनाए थे जब,उसने धीरज खोया था।
देख दशा उजड़े यौवन की,अंबर भी तब रोया था।
धुला महावर जिन पैरों का,शीश नवाने आयी हूँ।
आज तुम्हें ‘केसर-घाटी का,गीत सुनाने आयी हूँ।
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अंतरा (3)
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जिसकी पावन माटी से भी,तिलक लगाया जाता है।
भारत का जो स्वर्ग कहाता, स्वर्णिम आभा पाता है।
आतंकी हमलों से घायल,प्राणों से जो प्यारा है।
चरण पखारे झेलम जिसके,वो कश्मीर हमारा है।
सूनी-घाटी की लाली से,माँग सजाने आयी हूँ।
आज तुम्हें ‘केसर-घाटी’ का, गीत सुनाने आयी हूँ।
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अंतरा (4)
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आतंकी ताने-बाने के,मनसूबे भी ज़ारी हैं।
हम शब्दों के कलम- पुरोधा,गद्दारों पर भारी हैं।
आज जहाँ नफ़रत सीने में, आँखों में अंगारे हैं।
उस धरती के घर-आँगन में, ढेरों चंदा-तारे हैं।
परिवर्तन की अलख जगाकर,मान बढ़ाने आयी हूँ।
आज तुम्हें ‘केसर-घाटी’ का, गीत सुनाने आयी हूँ।
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अंतरा (5)
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अब सत्ता की खामोशी पर,हम आवाज़ उठाएँगे।
हत्यारों पर टूट पड़ेंगे,हम गोले बरसाएँगे।
तूफ़ानी बादल बनकर हम,दुनिया पर छा जाएँगे।
भारत का संबोधन बनकर, दुश्मन को ललकारेंगे।
सेना पर पत्थरबाजों को,सबक सिखाने आयी हूँ।
आज तुम्हें ‘केसर-घाटी’ का, गीत सुनाने आयी हूँ।
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अंतरा (6)
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वीर तिरंगा, कफ़न ओढ़कर, नव इतिहास रचाएगा।
वैभव-गौरव, सुयश,ख्याति का,वो हक़दार कहाएगा।
शपथ आज लेते हैं हम सब, देश नहीं बिकने देंगे।
भगतसिंह ,राणा प्रताप बन,लाल नहीं मिटने देंगे ।
अपने गीतों की माला का,सुमन बनाने आयी हूँ।
आज तुम्हें ‘केसर-घाटी’ का, गीत सुनाने आयी हूँ।
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डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर