गीत
स्वार्थ ,नफ़रत, द्वेष तज निज मन निरंजन कर चलो,
गर्त्त का पर्दा हटाते आत्ममंथन कर चलो।
आँख में भरकर उमंगें मूल्य अपना आँकते,
लालसा के रथ चढ़े उपलब्धियों को नापते।
प्यास तृष्णा की बुझा अब कुछ चिरंतन कर चलो,
गर्त्त का पर्दा हटाते आत्ममंथन कर चलो।
भ्रमित करती कामना से बढ़ रहा अँधियार है,
विहँसती नियती मनुज पर घट रहा उजियार है।
मोह का पथ त्याग अविरल आज चिंतन कर चलो,
गर्त्त का पर्दा हटाते आत्ममंथन कर चलो।
चाहतों की मस्तियों में लक्ष्य निज खोना नहीं,
क्षीण होती देह का नैराश्य अब ढोना नहीं।
सत्य-शाश्वत जान जीवन राह कंचन कर चलो,
गर्त्त का पर्दा हटाते आत्ममंथन कर चलो।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’