गीत
आज पिताजी
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आज पिताजी
शहर छोड़कर
गाँव लगे जाने
बोल रहे हैं
शहरों में अब
साँस अटकती है
घर में बैठी
पड़ी आत्मा
राह भटकती है
बरगद की वह
छाँह छबीली
मार रही ताने
ऊँचे महलों
के छज्जों तक
किरणों का आना
खिड़की पर चढ़
पड़ी खाट तक
पास न आ पाना
सता रहे हैं
सोरठी-बिरहा
कोयल के गाने
पगडंडी पर
ईख चाभना
खेतों से मिलना
मखमल की उस
गद्दी पर सो
कलियों का हिलना
जहाँ जिन्दगी
जीना होता
जीने का माने
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ