गीत :संस्कृति रही कराह हमारी
संस्कृति रही ‘कराह’ हमारी,,,,,, यही ‘कामना’ करता हूँ।
‘वेदों’ की ओर अब लौट चलो मैं, यही ‘प्रार्थना’ करता हूँ।।
‘मन’ की ‘पीड़ा’,मन की ये ‘व्यथा’।
अब किससे कहेगा ‘विधुर’ कथा।।
‘संस्कृति’ प्रचारक ‘मौन’ हुए।
‘आभाषित’ होता ‘दीन’ हुए।।
निज ‘भाषा’ निज ‘संस्कृति’ हेतु,प्रतिपल ‘साधना’ करता हूँ।
‘वेदों’ की ओर अब लौट चलो मैं, यही ‘प्रार्थना’ करता हूँ।।
कहाँ गईं ‘मीरा’,’महादेवी’,
कौन पियेगा ‘विष प्याला’।
कहाँ खो गयी ‘दिनकर’ की कविता,
कहाँ छुपी है ‘मधुशाला’।।
कहाँ गए ‘तुलसी’ ‘कबीर’,
कहाँ गए अब,’पंत’ ‘निराला’।
कौन हरेगा ‘निशा’ ‘महि’ का,
कौन पिलायेगा ‘हाला’।।
जिस संस्कृति में हुआ अवतरित,उसकी ‘वन्दना’ करता हूँ।
‘वेदों’ की ओर अब लौट चलो, मैं यही ‘प्रार्थना’ करता हूँ।।
जिस ‘डोरी’ को पकड़ के आए,
‘सूर’ वो ‘डोरी’ छूट रही।
बन के काल ‘पश्चिमी सभ्यता’,
मुझको है यह ‘लूट’ रही।।
‘बिलख-बिलख’ कर निज ‘संस्कृति’,
देखो कैसे ‘टूट’ रही।
‘कम्पित’ होते हैं ‘कवि’ के ‘अधर’,
‘स्वर कम्पित’ ‘कविता’ फूट रही।।
-अभिषेक कुमार शुक्ल ‘शुभम्’
(कवि गजल गीतका)