गीत – प्रेम असिंचित जीवन के
प्रेम असिंचित जीवन के इस बंजर मन में
आशाओं के पुष्प खिलाना , कितना दुष्कर
बंजर मन में नागफनी के अगणित क्षुप हैं
जो उग आये हैं चिंतन के विस्तारों तक
इनका ओर न छोर दिखाई देता कोई
ये फैले हैं अंधियारों से उजियारों तक
हर दिन बढ़ते नागफनी के इस जंगल को
अपने मन से काट मिटाना , कितना दुष्कर
स्वर्ण -रजत का पोषण देकर हमने सींचा
अपने जीवन को सुविधा की बौछारों से
जीवन व्यर्थ गँवाया अपना , सोच न पाए
खेल रहे हैं हम भी कैसे अंगारों से
स्वर्ण -रजत के दम पर अपने जीवन के
इस बंजर मन में प्रेम जगाना , कितना दुष्कर
शब्द पढ़े से ज्ञान हुआ है किसको जग में
प्रेम पढ़े से कौन रहा है जड़ अज्ञानी
शब्द पढ़े और प्रेम न जाने , तो फिर कैसा
त्यागी , तपसी, योगी , राजा , औघड़ , ध्यानी
शब्द धनी ,पर, प्रेम अशिक्षित अपने मन को
अक्षर अक्षर प्रेम पढ़ाना , कितना दुष्कर
… शिवकुमार बिलगरामी