गीत- छिपाता हूँ भुलाता हूँ…
छिपाता हूँ भुलाता हूँ न कहता दर्द मैं अपने।
नहीं है हक मुझे कोई कि तोड़ूँ और के सपने।।
कभी है धूप जैसी ज़िंदगी तो छाँव भी ये है।
हराती है मगर सुनले विजय का दाँव भी ये है।
मिले मंज़िल उसी को जो चला सच में यहाँ तपने।
छिपाता हूँ भुलाता हूँ न कहता दर्द मैं अपने।
नहीं है हक मुझे कोई कि तोड़ूँ और के सपने।।
वहाँ जाना मेरा तय है जहाँ सोचा मेरे रब ने।
मेरे दुश्मन गिरे आकर बुरा सोचा जहाँ जिसने।
गगन की सोच लेकर जो चला इतिहास वो रचने।
छिपाता हूँ भुलाता हूँ न कहता दर्द मैं अपने।
नहीं है हक मुझे कोई कि तोड़ूँ और के सपने।।
किसी के ज़ख्म पर मरहम लगा इंसान कहलाए।
किसी की रूह में बसकर निकल कोई नहीं पाए।
बनूँ सूरज बनूँ चंदा मुसाफ़िर ये लिखे सच ने।
छिपाता हूँ भुलाता हूँ न कहता दर्द मैं अपने।
नहीं है हक मुझे कोई कि तोड़ूँ और के सपने।।
आर. एस. ‘प्रीतम’