गीत- किसी का मर्ज़ समझेगा…
किसी का मर्ज़ समझेगा ख़ुदी को मारता जो है।
नहीं बुत में ख़ुदा पर है मनुज में मानता जो है।।
सभी बच्चे यहाँ रब हैं न जानें धर्म की बातें।
न जानें जाति सचमुच में लिए काग़ज़-सी दिन-रातें।
सिखाते हम वही सीखें हृदय सुन ठानता जो है।
किसी का मर्ज़ समझेगा ख़ुदी को मारता जो है।
हमीं कारण निवारण हम ख़ुशी ग़म के ज़रा जानो।
हमीं चोटी हमीं तलहट कहावत कर्म की मानो।
निशाना तीर का लगता धनुष हँस तानता जो है।
किसी का मर्ज़ समझेगा ख़ुदी को मारता जो है।
किसी के साथ से सीखें किसी की बात से सीखें।
किसी के प्रेम से सीखें किसी की घात से सीखें।
मगर सीखे वही मानव सभी सुर सानता जो है।
किसी का मर्ज़ समझेगा ख़ुदी को मारता जो है।।
आर.एस. ‘प्रीतम’
शब्दार्थ- ख़ुदी- अहंकार/घमंड