गीत – इस विरह की वेदना का
इस विरह की वेदना का अंत कैसे हो सकेगा
रो रही हैं करवटें तकिया करे उपहास मेरा
स्नेह मुझ से कर न पाए क्या रही होगी विवशता
स्वर्ग से मधुरिम समय को द्वार से संचित किया था
चूड़ियों की खनखनाहट ओंठ में थी थरथराहट
साज़ दिल का सुन न पाए प्रेम से वंचित किया था
नीर नैनों का पुकारे ओ सजन व्याकुल हृदय,मन
कौन छोड़े आज करवा चौथ का उपवास मेरा
मैं सुहागन पतिव्रता नारी कहाँ तक मौन रहती
कार्य कर घर बार के फिर भी मगर मैं गौन रहती
नेह सिंचित चल रही हूँ बंधनों की लाज रख कर
है निहित मुझमें पिपासा वह हृदय में कर गई घर
मिथ्य थी संवेदनाएँ डस रही तन्हाइयाँ अब
जो गए परदेस तुम तो हो रहा आभास मेरा
बादलों ने राग छेड़ा लोचनों से नीर बहता
यह न पानी से बुझेगी देख पाते तुम जलन को
सात फेरों से जुड़ी थी उस शपथ की क्या दशा है
तुम निभा लेते अगर जो सात में से इक वचन को
इस तरह से हो न पाता मन विरह में आज जोगन
हाँ कदाचित भाग्य में ही था लिखा वनवास मेरा