गीत।। रूमाल
आँख से बीन कर रक्तिमी डोरियाँ,
एक बूटा बनाया है रूमाल पर।
इसलिए कि कोई और पढ़ न सके,
कुछ अधूरा बनाया है रूमाल पर।
चंद सिक्के बचाए बचूए हुए, दादियों की चतुर अंजुरी में रखे।
चैत, कातिक के मेले में जाते हुए, बाँधकर गाँठ जो कंचुकी में रखे।
उनकी छाती से रिसते हुए स्वेद ने,
कुछ उन्हीं सा बनाया है रूमाल पर।
उम्र की थान से एक टुकड़ा चुरा, भावनाओं के दो फूल काढ़े गए।
जैसे कैशौर्य जाता है बिन कुछ कहे, वैसे रुमाल के रंग गाढ़े गए।
आँसुओं में घुला जो गिरा गाल पर,
वो ज़माना बनाया है रूमाल पर।
नाक अपनी बचाने को स्कूल में, हमको रूमाल जो सर्दियों में मिला।
वो जो बस्ते में इक पोटली की तरह, चार कंचे भरे इमलियों में मिला।
श्वेत से फिर हरा, क्यों हुआ माटिया,
हर बहाना बनाया है रूमाल पर।
– शिवा अवस्थी