ग़ज़ल
ग़ज़ल
ज्यों पकने के कगार पे आने लगी फ़सल।
बाज़ार भाव ख़ुद का गिराने लगी फ़सल।।
हैरत में है किसान पसीने को बेंच कर,
ख़ाली है जेब और ठिकाने लगी फ़सल।।
खेतों में लहलहा के जो कहती थी कान में।
वादा वो बिन निभाये ही जाने लगी फ़सल।।
गुड़िया वो कल तलक़ थी नई फ़्रॉक माँगती,
बिक़ते ही लाड़ली को चिढ़ाने लगी फ़सल।
आँखों ने माँ की बच्चों को घुड़का तो यूँ लगा,
मजबूरियों में उसको दबाने लगी फ़सल।
सरकार से अनेकों बनीं योजनाएं पर,
लो कागज़ों में बिक के दिखाने लगी फ़सल।।
पर्सेंट सबके तय हैं मुहर्रिर हों या कि बॉस,
बँट-बँट के सबकी जेबों में जाने लगी फ़सल।
हैरान मैं किसान हूँ कर्ज़ों में डूबता,
इसबार तो मुहँ तक भी डुबाने लगी फ़सल।।
सूखा मैं उसके साथ दुपहरी में जेठ की,
इससे ही ‘नित्य’ अश्क़ों भिगाने लगी फ़सल।
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नित्यानन्द वाजपेयी ‘उपमन्यु’