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4 Feb 2021 · 1 min read

गीतिका

०००
गंदगी से भरे क्यों हृदय संदली
०००
तोड़ने को अगर हाथ बढ़ते रहे,
फूल बन‌कर खिलेगी न ‌कोई कली ।
है सुरक्षित न कोई ‌कहीं भी यहाँ,
हो हमारी तुम्हारी ‌किसी की लली ।।१

अब अमरबेल-सी बढ़ रही वासना,
नोंचने को उतारू है कोमल बदन ।
जड़ न मिलती कहीं काटियेगा किसे ,
अट ग‌ई गंदगी से यहाँ हर गली ।।२

जा रही खेलने गोद गुड़िया को ले,
दूध के दाँत भी टूट पाये न थे ।
घात में बाज बैठे हुए ताकते ,
किस तरह से बचें बेटियाँ लाड़ली ।।३

चीखते रोज अखबार के पृष्ठ हैं,
काँपता है कलेजा लहू खौलता ।
क्यों‌ दरिंदा बना जा रहा आदमी ?
गंदगी से भरे क्यों हृदय संदली ?४

डालिये मत कभी विष भरी दृष्टियाँ,
नर्क की राह खोलो नहीं जानकर ।
आग से खेलना बुद्धिमानी नहीं ,
इसमें‌ झुलसे जले जो बड़े थे बली ।।५
०००
महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
***

2 Likes · 2 Comments · 314 Views
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