गीतिका
दर्द जब-जब सताये, बढ़े प्रीत में।
शब्द तब-तब हमारे ढले गीत में।
जल गई कोर सारी हरी घास की,
आग कैसी लगी माघ की शीत में।
यूँ लगा की मिलन की घड़ी आ गई,
जब हमारा बदन रंग गया पीत में।
एक के हम हुए, इक हमारा हुआ,
बस यही फर्क है मौत में, मीत में।
ये सबक दे गया, वो अहम दे गया,
जो मिला बस यही हार में जीत में।
हो गुजारा तिहारे बिना जिन्दगी,
आग लग जाय ऐसी सभी रीत में।
थी नदी पास में और प्यासे ‘विनय’
हम दबे रह गये रेत की भीत में।
(पीत- पिला रंग, भीत – ढेर)