गीतिका
ख़ुशियों की लक़ीरों को ये किसने मिटाया है
जब देखा हथेली तो बर्बादी ही पाया है
मैं कैसे करूँ कोई दुनिया से शिक़ायत भी
हमनें तो मुक़द्दर में बस दर्द लिखाया है
लगता है ग़रीबी ये जीने न मुझे देगी
बस फिक़्र-ए-रोटी ने दिन रात सताया है
आने ही नहीं पाती ख़ुशियाँ मेरे आँगन में
वो कौन है के जिसने ये पर्दा लगाया है
ग़मख़्वार हमारा है दुनिया मैं नहीं कोई
हर दर्दो-सितम हमनें तन्हा ही उठाया है
इक रोज़ रहम हम पर अल्लाह करेगा ही
इस हौसले ने दिल को उम्मीद बँधाया है
क्यों जीने नहीं देता मुफ़लिस को जहां “प्रीतम”
बेदर्द ज़माने ने हर रोज़ रुलाया है
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)