“गीतिका”
“गीतिका”
उठा कर गिन रहे टुकड़े जिसे तुमने गिराया है
तुम्ही जिसमें ललक तकते रहे किसने डराया है
छिटककर अब पड़ें है जो नुकीले हो गए कतरे
किसी दिन उठ गए चरचे लिपट सबने पिराया है॥
धरो मत अब नया इल्जाम तुम दीवार बनाने का
रगर कितना करोगे तक तनिक हमने हराया है॥
बहाकर ले गई नदिया उफनकर बाढ़ जो आई
बसे किसके घरौदे बन हुये कितने पराया है॥
न कहना अब कभी सुन लो जमाने की नजर तिरछी
हुई किसको शिकायत शक गुनो अपने शिराया है॥
बनाकर पथ पथिक चलता रुके पूछे तिराहे पर
कहाँ मेरा ठिकाना है बता चलने सराया है॥
महज इतनी हुई बातें बता ‘गौतम’ समझता क्या
बता तेरी अकड़ औंधी हुई पल ने बिराया है॥
महातम मिश्र ‘गौतम’ गोरखपुरी