गीतिका
गीतिका -23
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* जिन्दगी *
जिन्दगी उम्र को खाती है बडी
होती है ।
वक्त के बोझ को सिर पर उठाये
ढोती है ।।
बोझ बढता है कि बढता ही चला
जाता है ।
बूढी अम्मा सी कहीं मौन पडी
रोती है ।।
कोई चुपचाप घौंपता है पीठ में खंजर ।
जिन्दगी आप ही इन खंजरों को
बोती है ।।
जो कभी फूल की सेजों पै पाँव
रखते थे
।
आज उनके ही करम में फटी सी
धोती है ।।
खो गया है कहीं या भूल गये रख
के उसे ।
लुटा जो हमने दिया कीमती वो
मोती है
।।
मैले आँचल को छिपा मीत कहाँ
जाओगे ।
दाग दामन के यार जिन्दगी ही
धोती है
।।
जिन्दगी की कहानी कहना कठिन
है यारो ।
जिन्दगी जलते हुए दीपकों की ज्योति है ।।
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महेश जैन ‘ज्योति’ ,
मथुरा ।
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