गीतिका
गीतिका -21
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आदमी
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पिसते’ पिसते बहुत बौना हो गया है आदमी ।
मातमी ख़त का सा’ कौना हो गया है आदमी ।।
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आसमाँ पर इन्द्रधनुषों सी तनी है कामना।
देखिये कितना सलौना हो गया है आदमी ।।
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रेज़गारी से भुने व्यवहार हैं इन्सान के ।
घट घटाकर ऩोट पौना हो गया है आदमी ।।
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फर्श की किस्मत में’ आये मखमली कालीन हैं ।
चीथड़ा कोई बिछौना हो गया है आदमी ।।
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पढ़ रहे भूगोल में हम सारी’ दुनियाँ गोल है ।
पर मुझे लगता तिकौना हो गया है आदमी ।।
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‘ ज्योति ‘ बींधे मोतियों के हार पोते हम रहे ।
बे बिंधे मोती पिरोना हो गया है आदमी ।।
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