गान तेरा सदा गुनगगुनाता रहूं।
गीत तेरे लिखूं छंद तेरे लिखूं गान तेरा सदा गुनगुनाता रहूं।
रक्त अपना बहा सरहदों पर ते’री, भारती कर्ज तेरा चुकाता रहूं।।
शारदे दीजिये धार तलवार सी, नित कलम को मे’री कर रहा हूँ विनय।
वीर राणा शिवा की कहानी सुना, हौंसला सैनिकों का बढा़ता रहूं।।
काव्य के इस जगत में जगह दो मुझे, शब्द सुर साधना भी मुझे दीजिये।
बन सकूँ भानु यदि मैं नहीं शारदे, जुगनुओं की तरह टिमटिमाता रहूं।।
प्रेम भी आपसे प्रीति भी आपसे, आप मानो नहीं बात है और ये।
आप आओ जरा पास मेरे अगर, मांग में चांद तारे सजाता रहूँ।।
नफरतों को जगत से करें दूर हम, मीत अब प्रीति के पथ चलें मुस्कुरा।
गीत पावन मिलन का जरा तू सुना, प्रेम की बांसुरी मैं बजाता रहूँ।।
मैं दिखाऊँ नहीं पीठ रण में कभी, बैरियों से लडू़ँ तान सीना सदा।
इतनी शक्ति मुझे दो दयासिंधु अब, शीश दुश्मन का ‘ हरदम झुकाता रहूँ।।
घर गरीबों के’जगमग मैं करता रहूँ, और तम से लडू़ँ हर निशा हर घड़ी।
“दीप”विनती यही कर रहा शारदे इस जगत को उजाले दिखाता रहूँ।।
प्रदीप कुमार “प्रदीप”