किताबों की अदला बदली
आज के इस नए जमाने में , निजी विद्यालयों की भरमार के बीच, जहाँ हर साल कोर्स की नई पाठ्य पुस्तकें लेना अनिवार्य हो गया है क्योंकि किताबों की कीमत सत्र शुरू होने के पहले ही ले ली जाती है और विद्यार्थियों को भी अब किसी की इस्तेमाल की गयी पुस्तकें फिर से प्रयोग में लाने में शायद हिचक महसूस होती हो।
ये बात सुनकर उनको अजीब भी लगे कि हमने पुरानी पुस्तकों से ही पढ़ाई की है।
उस जमाने में पैसों का अभाव तो अवश्य रहा पर ये अहसास भी रहा कि पुरानी पुस्तकें भी इस्तेमाल करने मे कोई हर्ज नहीं है।
नई कक्षा में जाने से पहले मेरे जैसे कई छात्रों की यही तलाश रहती थी कि एक ऐसा घर ढूंढ़ले जिसमे एक भाई या बहन मुझसे एक साल आगे हो और उसका छोटा भाई या बहन मुझसे एक साल पीछे। ताकि मैं अपनी पुरानी पुस्तके उन्हें देकर नई कक्षा के लिए पुस्तकें पा सकूँ।
एक बार ऐसा घर मिलने के बाद ये सिलसिला जारी रहता जब तक हम तीनों में से कोई एक फेल न हो जाता।
भगवान से भी यही प्रार्थना रहती थी मेरे अलावा उस घर के दोनों विद्यार्थियों को भी पास करा देना।
और वो दोनों भी मेरे लिए और अपने लिए यही दुआ करते थे शायद।
ऐसा नहीं था कि पुस्तक विक्रेता मिश्रा जी जब स्कूल के बरामदे में हर साल नई चमचमाती पुस्तके लेकर आते थे तो मन नहीं चलता था नई पुस्तकें खरीदने का।
पर इसकी भरपाई भी,हम पुरानी पुस्तको में नई नई जिल्दें लगाकर पूरी कर ही लेते थे।