ट्रक का नंबर
ये वाकया तब का है जब मेरी उम्र मुश्किल से बारह तेरह बरस की थी।
हमारे गांव से राष्ट्रीय राजमार्ग NH ३२ गुजरता है। चूंकि हमारा घर मुख्य सड़क से काफी अंदर की ओर था , इसलिए उधर जाना केवल स्कूल या बाजार जाते वक्त ही होता था।
मेरे कुछ दोस्तों के मकान सड़क के दोनों ओर थे। लगभग हर मकान के बाहर एक ऊंचा खुला बरामदा होता था जहाँ एक दो खाट बिछी होती थी।
गांव में आठ दस लोगो के पास अपने ट्रक थे जो आस पास के गांवो और शहरों से सामान लाते ले जाते थे।
एक दिन की बात है कि मैं भी स्कूल से लौटते वक्त मेरे उन दोस्तों पास जाकर बैठ गया। वो आपस में आती जाती उन मालवाहक ट्रकों का नंबर और इसका मालिक कौन है, के बारे में एक दूसरे से पूछ और बता रहे थे।
उन्होंने मेरी तरफ जरा हिकारत से देखा, सड़कों का रौब गलियों पर चलने लगा!!
उन्हें पता था, मेरा घर सड़क से काफी अंदर की तरफ है और इस बाबत मेरी जानकारी भी उनके मुकाबले सीमित ही थी।
इसलिए मेरी इस खेल में भागीदारी एक मूक दर्शक की ही थी।
अचानक दूर से आती ट्रक को देखकर किसी ने पूछा, बताओ कौन सी ट्रक आ रही है, दूसरे ने एक पल उस ट्रक को देखा, जो अब भी काफी दूर थी और जवाब दे दिया,
अरे,यह 6518 है कुंडू बाबू की ट्रक है। मेरी आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गयीं । उसकी इस विलक्षण प्रतिभा और तेज दृष्टि का मैं कायल हो गया।
उनका ये खेल काफी देर यूँ ही चलता रहा और मैं बेवकूफों की तरह उनकी ओर देखता रहा।
फिर कुछ देर बाद मैं उदास होकर अपने घर लौट आया।
बाल मन प्रतियोगी होता है और पिछड़ने का अहसास एक हीन भावना ला ही देता है।
मेरी ये अक्षमता मुझे कई दिनों तक खली।
बाद में मैने अपने मझले भाई को ये बात बतायी ।
मेरी मन की स्थिति को समझ, वो जोर से हँस पड़े और काफी देर तक हँसते रहे।
फिर प्यार से बोले, देखो तुम मुझे रोज देखते हो, अगर मैं दूर से भी आता दिखूँ तो भी तुम मुझे पहचान लोगे ना?
बस यही बात है।
उन्होंने फिर बताया कि उनके कुछ मित्र तो घर लौटती गायों को भी देखकर बता देते थे कि ये किसके घर की है?
मेरी पीठ सहलाते हुए बोले, आओ थोड़ी पढ़ाई कर लें।