वंदेमातरम
ये रोचक प्रसंग आजादी से एक दो साल पहले का है। हमारे दूर के रिश्तेदार, दुर्गादत्त दादाजी के पुत्र को आजादी के संग्राम में उतरने की जब प्रेरणा प्राप्त हुई,
तो उन्होंने अपने कुछ साथियों को इकट्ठा करके एक दिन एक जुलूस निकाल ही दिया।
गांव की गलियों में घूमते हुए खूब जोर शोर से वंदेमातरम, भारत माता की जय और अंग्रेज़ों भारत छोड़ो के नारे लगाए गए।
थाने तक जब ये खबर पहुंची तो फिर पुलिस प्रशासन हरकत में आ गया , उनको और उनके साथियों को पकड़ कर हवालात में डाल दिया गया।
दादाजी को ये बात पता चली तो वो फ़ौरन थाने पहुँचे और ये प्रार्थना की कि नौजवान बच्चों ने जोश मे आकर ये कारनामा किया है, इसलिए उनकी इस कोताही को माफ कर दें ,साथ ही रिहा करने का आग्रह भी किया।
तब तक थाने के बाहर भीड़ भी कौतूहलवश जमा होनी शुरू हो गयी थी क्योंकि छोटे से कस्बे में इस तरह के वाकये कम ही होते थे।
कई देर की मिन्नतों के बाद जब दरोगा बाबू नही माने। तो फिर उनका सब्र भी जवाब दे गया। भावनायें काबू से बाहर होते ही अपनी मारवाड़ी भाषा में एक गाली देकर कहा(दरोगा जी को पक्का नहीं समझ मे आयी होगी) , नही मानोगे तो? और जोर जोर से बोलने लगे-
फिर हम भी वंदेमातरम,
तुम भी वंदेमातरम
मेरी घरवाली भी वंदेमातरम
तेरी घरवाली भी वंदेमातरम
ये गांव वंदेमातरम
और देश भी वंदेमातरम!!!
साथ में, एक चेतावनी भी दे डाली कि हमारे पूरे खानदान को गिरफ्तार करो।
और आज से प्याज़ लहसुन रहित तीन वक़्त का खाना खिलाने की जिम्मेदारी भी दरोगा जी अब आपकी ही है।
दरोगा जी को, अपने से बड़ी उम्र के पगड़ी और तिलकधारी पंडित जी से, इस अकस्मात आंदोलनकारी रवैये की कतई उम्मीद नहीं थी।
उनके तेवर अब थोड़े ढीले पड़ने लगे, गांव के कुछ और प्रतिष्ठित लोग भी आ गए थे, समझाने बुझाने के लिए।
फिर बाद में सब नौजवानों को छोड़ दिया गया।