गांव और शहर
पहचान बनाने अपनी खुद की शहर की चकाचौंध में हम आ गए,
आशियाना मानकर शहरों को सपनों का गांव को कहीं छोड़ आए,
खुले आंगन और माटी की महक छूट गई अब कोसों दूर,
क्यूंकि चार दीवारों को कमाने में जन्नत कहीं पीछे छोड़ आए,
वो बेमतलब की महफिलें गांव की आने लगी अब याद,
जब शहरों में मतलब के लोगों को पास अपने पाने लगे,
जब से चूल्हे की रोटी छोड़ शहर का खाना खाने लगे,
तब से हर रोज़ हकीम के घर हम यूं ही जाने लगे,
हवेली छोड़ गांव की शहर के चार दीवारों में इस कद्र हम कैद हो गए,
जब छोड़ा साथ शहर ने अपना तो गांव में जाने के लायक न रहे,
सही कहा था किसी ने मत जाओ जमीं अपनी छोड़कर
बाद में बड़ा पछताओगे,
भीगी पलकों से करोगे याद इस जमीं को पर चाहकर भी वापिस न आ पाओगे,
छोड़ी जो गांव की छाया शहर की रोशनी पाने को,
आज उसी छाया को तरस रहे जिंदगी में इक पल की खुशी पाने को