श्रोता के जूते
लोग औरों की बात करते हैं
मगर मैं डरता हूँ
इसलिए जब कभी भी मंच पर होता हूँ
बस अपने घर की बात करता हूँ
फिर भी जो होनी है
वह हो ही जाती है
जनता जिस को धोना चाहती है
धो ही जाती है
एक बार एक कवि सम्मेलन में
जब मेरा नंबर आया
तो संचालक महोदय ने
यूँ बुलाया
अब मैं ऐसा कवि पेश कर रहा हूँ
मंद है जिसकी मति
ये हैं जोरू के गुलाम
श्रीमान कांतिपति
अपना नाम सुना
विशेषण भी भाया
मटकते हुए
माइक तक आया
श्रोता जन सिटी बजाए
देने को सम्मान
मैं करने लगा पत्नी का गुणगान
मैं कविता पढ़ रहा था
जनमानस पर छा रहा था
तालियों की गड़गड़ाहट थी
सब को भा रहा था
तुक भरे शब्दों से खेल रहा था
हास्य और व्यंग्य साथ-साथ ठेल रहा था
मैं बतला रहा था
कैसे पत्नी-स्तुति करता हूँ
कैसे भोजन पकाता हूँ
कैसे लगाता हूँ झाड़ू
मैं बतला रहा था
ससुराल का संचालन
कितने दिन मैं करता हूँ
कितने दिन मेरा साढ़ू
मैं बतला रहा था
आदरणीय सोता श्रोता जन
मेरी बीवी बड़ी खिलाड़ी है
मेरे सिर को फुटबॉल समझ कर
ना जाने कितने किक मारी है
तभी एक जूता मंच पर आया
सिर से टकराया
मैंने कहा अरे भाई
मंच पर एक ही जूता किसने चलाया
तो कोने में खड़ा एक सज्जन चिल्लाए
अबे वो कवि की औलाद
तेरी सारी हेकड़ी झाड़ दूँगा
चुप हो जा वरना दूसरा भी मार दूँगा
ज्यादा बकबक किया
तो आँख में घुसेड़ दूँगा सुई
मेरे घर की बात
बोलने की तेरी हिम्मत कैसे हुई
अबे तू दूसरों के घर की राज खोलेगा
मेरे घर की बात मंच से बोलेगा
उस सज्जन के हाथ में
लपलपाता चमचमाता जूता देखकर
मेरा मन ललचाया
मैंने वक्तव्य को इस प्रकार आगे बढ़ाया
बात किसी के भी घर की हो
अगर उस में दम है तो भेद खोलूँगा
मसालेदार चीज आपके घर में है
तो क्या आप के बाप के घर की बोलूँगा
इतना सुनते ही
सज्जन तावमें आए
उनका जूता
मेरे नसीब में था
चलाए
उनका निशाना अचूक था
मेरे ऊपर ही आया
मैंने भी कुशल क्रिकेटर की तरह कैच लपका
व पहला मंच से उठाया
नीचे उतरा
जैकेट की बटन खोली
दोनों जेबों में एक-एक जूता रखा
घर की राह हो ली
और जब घर पहुँचा
तो वहाँ का मंजर ही निराला था
क्योंकि नंगे पाँव विराजमान
मेरा हमउम्र साला था।