गाँव में फिर
गाँव में फिर
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फिर गाँव में गाँव ढूँढने आ गया वह।
चलो देखें कि क्या-क्या पा गया वह।
सूखकर वह नदी कांटा हुई थी।
छू किनारे जो कभी बहती यहाँ थी।
हृदय इसका रेत में डूबा पड़ा था।
और किनारा सांस भर रोता खड़ा था।
कट चुका था आम का वह पेड़।
जिसके तन को देता था कभी वह छेड़।
वह पीपल भी जिसे बच्चे खड़े हो घेर
लेते थे,लगा देते थे पत्तों के बड़े से ढेर।
थे पनप अब रहे ईंट,पत्थर के बड़े बाड़े।
गाँव के राग को थे किस-किसने बिगाड़े।
शहर से लौटे लोग क्या-क्या नहीं ले लौटे!
लोभ,ईर्ष्या,चालाकी नेताओं सा ही ले लौटे।
चेहरे ही नहीं चाल और चरित्र भी गए बदल।
स्नेह,आदर,मैत्री-भाव का नया संस्करण छल।
गाँव में मुँहबोले रिश्तों का हो गया खात्मा है।
गाँव से गाँव की अब तो चली गई आत्मा है।
धूल झाड़कर गाँव उठ गया जरूर है।
किन्तु, इसके मन में भर गया गरुर है।
शहर बन जाने की ललक और लालसा है बहुत।
मन के सोच में भरा पड़ा ‘कमाल’ सा है बहुत।
संस्कृति अपनी छोड़ने को कहता गँवईपन छोड़ना।
शहर की अपनाने को कहते मुड़ना और मोड़ना।
रिश्ते,नाते सब अब सिमटने लगे हैं।
सांत्वना,सहानुभूति भी घटने लगे हैं।
बदल गया बहुत कुछ है सदियों के सीखें भी।
जीवन की गति बदली तथा जीने के तरीके भी।
ज्ञान,ज्ञान के प्राण,प्राण की शक्ति,बढ़े ज्ञान के दंभ।
श्रमवादी गाँव कर रहा हर श्रम को धीरे-धीरे भस्म।
जो जल मीलों दूर से चल आते थे घर के आँगन में।
माँएँ,बहनों के कमर और सिर चोटिल होते थे हर पग में।
बना सुधर कर नल का पानी,पानी बन गया जल है।
गंदे नाले हुए तिरोहित कच्ची सड़कें ठोस सबल है।
स्वच्छ अस्वच्छ में अंतर करना सीख गया अब गाँव ।
भोलेपन से उबर रहा अब बूझ रहा उलटा सब दांव ।
अभिव्यक्ति कभी तुतलाता था अब फर्राटेदार।
गली-गली का घर-घर का भी बदला है संसार।
मुखर हुआ है, भूख-प्यास के नारे गढ़ना सीख गया है।
श्रम की हिस्सेदारी की कीमत बाजुओं में दीख गया है।
जाति आधारित छुआछूत से नफरत करना सीख गया है।
आदि-पुरुष उसे अपने वंश का ऋषि,मुनियों में दीख गया है।
उसे स्थापित करके खुद को बराबरी पर ले आयेगा।
मनु के ग्रन्थों के विवरण को अब नहीं ऐसे ढो पाएगा।
कभी सरोवर में जल था और मछलियाँ छपकाती थी।
आज चिढ़ाता हुआ सा मुँह है पहले ये ही मुसकाती थी।
जातिवाद के पहरे थे तब पिछली पंक्ति के हमलोग।
छिन्न-भिन्न अब पांत हुआ है लोग जगे हैं नहीं संयोग।
सदियों से गाँव संकीर्णता के कोख में पलता रहा आया था।
सांप्रदायिकता,स्थानीयता,अज्ञानता में ढलता रहा आया था।
किन्तु,अब बदला है सारे समीकरण गाँव-गाँव, घर-घर में।
आजादी का नहीं संविधान का दिया हुआ है यह स्वर में।
बनियापन,योद्धापन,बाभनपन आदमी के रग-रग में
बैठ रहा है,पैठ रहा है त्याग रहा छुद्रता डग-डग में।
माटी से उठ बैठा चलने को है प्रस्तुत।
गाँव का परिवर्तन सच में है अद्भुत।
———————————————————————- 16/12/23