गाँव कुछ बीमार सा अब लग रहा है
गाँव कुछ बीमार सा अब लग रहा है
हर महीना रार- सा अब लग रहा है
सूना पीपल, पंखा विद्युत का चला
वक्त भौतिक यार-सा अब लग रहा है
किसानी युग-मशीनों के भरोसे है
बैल बूढा नहिं रहा कुछ काम का
जवानी जग-गुलामी का बोझ ढोती
कुछ अत्यधिक नशा है भ्रम के जाम का
गुणी थैला भार-सा अब लग रहा है
गाँव कुछ बीमार सा अब लग रहा है
सघन सुविधा, साधनों को खूब पूजा
फेरते तकनीकरूपी घना कूँचा
श्रम सु सूरज डूबता सा दिख रहा है
चढ गया बीमारियों का भाव ऊँचा
सुजन फन ब्यापार-सा अब लग रहा है
गाँव कुछ बीमार सा अब लग रहा है
सियासती लड्डुओं में भ्रम का साया
इसलिये ही फूट की चैतन्य माया
हँस रही है, जागरणहित निज वतन को
चाहिए, सद्सांस्कृतिक-उत्थान ऊँचा
हर नियम अधिकार सा अब लग रहा है
गाँव कुछ बीमार सा अब लग रहा है
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✓इस रचना को मेरी कृति “जागा हिंदुस्तान चाहिए” काव्य संग्रह के द्वितीय संस्करण में भी पढा जा सकता है।
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पं बृजेश कुमार नायक