विश्व पुस्तक दिवस
साहेब ! बेरोजगार हूँ रोज पढ़ता हूँ
अपने दर्द की दवाई रोज लेता हूँ
देखे बिना चहेरा दिन नही बीतता ,
बेरोजगार हूँ साहेब रोज पढ़ता हूँ ।
नॉकरी की कवायद लगा रखी है यह समाज
रोज झूठ पे झूठ बोले जा रहा हूँ
पगली ! बस रोज तुझे पढ़े जा रहा हूँ ।
कैसे मिलेगा तुझे हम जैसा आशिक ,
रोज दर्द पे दर्द खाये जा रहे हैं ,
ठंडी ,बारिश ,गर्मी और आंधी बस तुझसे प्यार किये जा रहे हैं ,
अब नही सहे जाएगी तेरी जुदाई ,फिर भी बेरोजगार हूँ रोज तुझे पढ़े जा रहा हूँ
मेरे संघर्षों में इतना इठलाती क्यो है ,
मुझे तू इतना तड़पाती क्यो है
कैसे रहेगा यह बेरोजगार तुझसे दूर रह कर ,
रोज पढूंगा तुझे हर खत के खातिर ,
खैर ! बेरोजगार हूँ रोज पढूंगा तुझे ।।