गाँधी
जन्म नहीं, मरण कहाँ; अवतरण-अमरत्व था,
उन अड़चनों के बनिस्बत वजनी नायकत्व था।
एक धोती, एक लकुटी, एक ऐनक मिल्कियत,
पदवियों की लड़ी से ज्वलित उसकी शख्सियत।
उसकी हरेक पुकार पर निसार न यूँ अवाम थी,
तरीके उसके अलहदा, ध्येय सबकी सलामती।
क्या करीने से अदा किया उसने मिट्टी का ऋण,
पांव उसके अथक चले, चित्त सत्व में विलीन।
अपने चरखे की सूत से उसने बुना ये मुल्क था,
नैतिक वैराट्य की थाह व वर्ण न कोई सुर्ख था।
बंदिशें तमाम चलन की शायद उसे जमी नहीं,
वह आया तो हम-सा ही, पर कभी गुजरा नहीं।