ग़लत को भाव मिलता है, सही को लात मिलती है।
सही से पेश आऊँ तो ग़लत मुझको समझते हैँ।
मुखौटा मैं लगाऊँ तो मुझे पलकों पे रखते हैं।
ग़लत की बात बनती है सही पे गाज गिरती है
ग़लत को भाव मिलता है सही को लात मिलती है।
मैं अच्छा सोचता हूँ तो मुझे बाबा जी कहते हैं।
कोई बदनीयती से हो उसे वाह वाह जी कहते हैं।
उसे सौग़ात मिलती है मुझे बस राख मिलती है
ग़लत को भाव मिलता है सही को लात मिलती है।
भला करने चले हो तो, संभल के, सोच के करना।
वो समझेंगे तुम्हे पागल, समझ के सोच के करना
उनका काम होता है तेरी औक़ात घटती है
ग़लत को भाव मिलता है सही को लात मिलती है।
यहाँ से काम करता हूँ यहाँ से मैं नहीँ करता।
सभी से प्यार करता हूँ, किसी को मैं नहीँ डंसता।
मुझे फिर भी हमेशा ही अँधेरी रात मिलती है।
ग़लत को भाव मिलता है, सही को लात मिलती है।
मेरी कविता में मैं रहता, मुझे जन्नत से क्या मतलब।
जहाँ सारा है ये मेरा, मुझे क्या माँगनीं मन्नत?
यहाँ तो धर्म बिकता है यहाँ जात बिकती है
ग़लत को भाव मिलता है, सही को लात मिलती है।
परिंदा हूँ मैं अम्बर का, मैं खुल के साँस लेता हूँ।
कभी ये दर कभी वो दर, मैं धरती नाप लेता हूँ।
“सुधीरा” सबका है लेकिन इसे तन्हाई मिलती है।
ग़लत को भाव मिलता है, सही को लात मिलती है।