ग़रीबों—संकलनकर्ता: महावीर उत्तराँचली
(1.)
ये शाह-राहों पे रंगीन साड़ियों की झलक
ये झोंपड़ों में ग़रीबों के बे-कफ़न लाशे
—साहिर लुधियानवी
(2.)
अमीर लोगों की कोठियों तक तिरे ग़ज़ब की पहुँच कहाँ है
फ़क़त ग़रीबों के झोंपड़ों तक है तेरा दस्त-ए-इताब मौसम
—एहतिशामुल हक़ सिद्दीक़ी
(3.)
ग़रीबों को फ़क़त उपदेश की घुट्टी पिलाते हो
बड़े आराम से तुम चैन की बंसी बजाते हो
—महावीर उत्तरांचली
(4.)
ख़ाक-आसूदा ग़रीबों को न छेड़
एक करवट में क़यामत होगी
—सिराज लखनवी
(5.)
हैरत नहीं जलें जो ग़रीबों के झोंपड़े
इस रात पी-ए-सी का बसेरा है शहर में
—ऐन मीम कौसर
(6.)
बे-धड़क पी कर ग़रीबों का लहू अकड़ें अमीर
देवता बन कर रहें तो ये ग़ुलामान-ए-हक़ीर
—जोश मलीहाबादी
(7.)
छीन कर मुँह से ग़रीबों के निवाले ‘शम्सी’
हाकिम-ए-वक़्त ने क्या ख़ूब मसीहाई की
—हिदायतुल्लाह ख़ान शम्सी
(8.)
चीरा-दस्ती का मिटा देती हैं सब जाह-ओ-जलाल
हैफ़-सद-हैफ़ कि हाइल है ग़रीबों का ख़याल
—शकील बदायुनी
(9.)
चमकदार धन काले धन से निकालो
ग़रीबों को रंज-ओ-मेहन से निकालो
—फ़े सीन एजाज़
(10.)
बे-ख़बर हो के ग़रीबों की दबी आहों से
आदमी किब्र-ओ-रऊनत का बना है पैकर
—कँवल डिबाइवी
(11.)
इन ग़रीबों को मिरी वहशत-ए-दिल क्या मालूम
ग़म का एहसास यहाँ भी है ब-दस्तूर मुझे
—महशर बदायुनी
(12.)
कोई ग़रीबों के मारने से हवा बंधी है किसी की ज़ालिम
अगर सुलैमान-ए-वक़्त है तो क़दम न रख मोर-ए-ना-तावाँ पर
—शाह नसीर
(13.)
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाह-राहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
—फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
(14.)
आज ही छूटे जो छुटता ये ख़राबा कल हो
हम ग़रीबों को है क्या ग़म ये वतन है किस का
—हैदर अली आतिश
(15.)
ये फ़रमान हाकिम है किस तरह टालें
कहा है ग़रीबों से अंगूर खा लें
—मोहम्मद यूसुफ़ पापा
(16.)
गुहर-बीँ है निज़ाम-उल-मुल्क अपना
तबीअ’त क्या ‘बयाँ’ क़िस्मत लड़ी है
—बयान मेरठी
(17.)
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मअ’नी
—साहिर लुधियानवी
(18.)
बे-वसवसा ग़रीबों पे भी हाथ साफ़ कर
मिल जाएँ तो जवार की भी रोटियाँ न छोड़
—शौक़ बहराइची
(19.)
फिर न तूफ़ान उठेंगे न गिरेगी बिजली
ये हवादिस हैं ग़रीबों ही के मिट जाने तक
—क़मर जलालवी
(20.)
इन ग़रीबों की मदद पर कोई आमादा नहीं
एक शाएर है यहाँ लेकिन वो शहज़ादा नहीं
—हफ़ीज़ जालंधरी
(21.)
इस से है ग़रीबों को तसल्ली कि अजल ने
मुफ़लिस को जो मारा तो न ज़रदार भी छोड़ा
—बहादुर शाह ज़फ़र
(22.)
कुछ कार्ड भी मज़दूर के हाथों में उठा कर
दो-चार ग़रीबों को भी धरती पे बिठा कर
—नील अहमद
(23.)
सहमी सहमी हुई रहती हैं मकान-ए-दिल में
आरज़ूएँ भी ग़रीबों की तरह होती हैं
—मुनव्वर राना
(24.)
हद से टकराती है जो शय वो पलटती है ज़रूर
ख़ुद भी रोएँगे ग़रीबों को रुलाने वाले
—आरज़ू लखनवी
(25.)
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
—साहिर लुधियानवी
(26.)
सोने दे शब-ए-वस्ल-ए-ग़रीबाँ है अभी से
ऐ मुर्ग़-ए-सहर शोर मचाना नहीं अच्छा
—भारतेंदु हरिश्चंद्र
(साभार, संदर्भ: ‘कविताकोश’; ‘रेख़्ता’; ‘स्वर्गविभा’; ‘प्रतिलिपि’; ‘साहित्यकुंज’ आदि हिंदी वेबसाइट्स।)