ग़ज़ल
“तुम्हारे बिन”
तुम्हारी याद के साए सताते हैं चले आओ
हमें जीने नहीं देते रुलाते हैं चले आओ।
तुम्हारे गेसुओं में पा पनाह हर शाम गुज़री थी
फ़लक से चाँद तारे मुँह चिढ़ाते हैं चले आओ।
तुम्हारे बिन फ़िज़ाएँ अब हमें बेरंग लगती हैं
चुराकर फूल की खुशबू लुटाते हैं चले आओ।
तुम्हारी आहटों को हम पलक पर आसरा देते
गुलों की मखमली चादर बिछाते हैं चले आओ।
नहीं पाकर कोई संदेश उल्फ़त लड़खड़ाती है
रुँआसे ख़्वाब नींदों में जगाते हैं चले आओ।
बहाकर अश्क आँखों से भिगोया रातभर तकिया
लिए ख़त हाथ में हम बुदबुदाते हैं चले आओ।
तुम्हारे बिन गुज़ारी ज़िंदगी तन्हा ज़माने में
सुनो ‘रजनी’ तड़प कर हम बुलाते हैं चले आओ।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर