ग़ज़ल
काफ़िया-आस
रदीफ़-बाक़ी है
बह्र-1222 1222 1222 1222
मिलन की प्यास बाकी है
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तरसता प्यार को तेरे मिलन की आस बाक़ी है।
जलाए दीप नयनों के सनम विश्वास बाक़ी है।
दिखा जब चाँद पूनम का लगा आगोश में तुम हो
गुज़ारी रात ख़्वाबों में अभी अहसास बाक़ी है।
बला की खूबसूरत हो अदा भी क़ातिलाना है
निगाहों में बसाकर भी ज़िगर की प्यास बाक़ी है।
तुम्हें जो देख लूँ जी भर नहीं मरने का’ ग़म मुझको
जनाज़े पे चली आना यही अरदास बाक़ी है।
चले दीदार को तरसे नहीं ‘रजनी’ बुलाना तुम
मुहब्बत का यही दस्तूर इक इतिहास बाक़ी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर