ग़ज़ल
ग़ज़ल
काफ़िया-आम
रदीफ़ -कर बैठा
तर्ज़-ग़रीब जान के हमको न…..
मुहब्बत के नाम
जो करना था मुझे वो आज काम कर बैठा।
मैं ख़ुद से ख़ुुद को ही तेरा गुलाम कर बैठा।
तुम्हारी शोख़ अदाओं ने दिल पे वार किया
नज़र नज़र से मिली तुमको सलाम कर बैठा।
तुम्हारी चाह मुझे रात-दिन सताती है
मैं अपनी नींद भी इसमें हराम कर बैठा।
पता किसे था मुहब्बत में इतना धोखा है
खुशी की चाह में ग़म अपने नाम कर बैठा।
सलामती की तेरे मैं दुआ ख़ुदा से करूँ
मैं आज ख़ुद को’ ही अश्कों का जाम कर बैठा।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर