ग़ज़ल
ग़ज़ल
रंज दर्द ग़म फुरक़त पाओगे ज़माने में
मुब्तिला हुए गर तुम दिल यहाँ लगाने में
भूल कर वफ़ा सारी जिसने तुमको ठुकराया
बेहतरी तुम्हारी है उसको भूल जाने में
आशिक़ी में जिसके तू भूल बैठा अपनों को
वो रखेगी चिंगारी तेरे आशियाने में
तुम तो एक झटके में तोड़ देते हो लेकिन
एक उम्र लगती है आइना बनाने में
वो जो इतना हँसता है पास जाके पूछो तो
दर्द है छुपा कितना उसके मुस्कुराने में
मुफ़लिसी के आलम को उनसे पूछिए जिनकी
उम्र बीत जाती है रोटियाँ जुटाने में
दर्द ज़ख़्म तन्हाई आह के सिवा प्रीतम
और कुछ न पाओगे हुस्न के ख़ज़ाने में
सोचकर परिंदा ये रंज़ में रहे शब दिन
कौन साँप रखता है उसके आशियाने में
———–गिरह
प्रीतम श्रावस्तवी