ग़ज़ल
डर रहा था मैं जिनको खोने से
कितने ख़ुश हैं वो मेरे रोने से
बोझ सांसों का रोज़ ढोने से
कौन ज़िन्दा है जिस्म होने से
जिस्म को धो लें इतना काफ़ी है
रूह किसकी धुली है धोने से
ज़िन्दगी की किताब महकेगी
हर वरक़ इश्क़ में भिगोने से
तिश्नगी राह भूल जाती है
तेरे ख़्वाबों के साथ सोने से
जो तेरे नाम से अता हैं मुझे
मिट न पाये वो दाग़ धोने से
फूल पत्थर में उग भी सकता है
कोशिशें ख़्वाब में पिरोने से
©anurag_suroor