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30 Aug 2018 · 1 min read

ग़ज़ल

काफ़िया-अता
रदीफ़-रहा
2122 2122 2122 212

दर्द आँखों से मेरी नासूर बन रिसता रहा।
याद में तकिया भिगो हर ज़ख्म को सहता रहा।

रौंदकर ख़ुदगर्ज़ दिल को खुद ख़ुदा बनकर जिए
गैर की महफिल सजाई आह मैं भरता रहा।

हसरतों में ज़िंदगी के इस सफ़र को काट कर
सोचकर अहसास उसका मैं ग़ज़ल लिखता रहा।

मुझ बिना जो जी न पाए बेवफ़ाई कर गए
मैं इबादत में सनम की आज तक झुकता रहा।

प्यार सीने में दफ़न कर राह में भटका किया
ख़्वाब नैनों में सजाए मैं सदा जलता रहा।

है बड़ी नासाज़ तबियत साँस चलती आखिरी
मुश्किलों के दौर में पीकर ज़हर हँसता रहा।

ज़िंदगी फिर रूँठ ‘रजनी’ लौट कर आती नहीं
मौत महबूबा बनी है मीत क्यों छलता रहा।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

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