ग़ज़ल
जो इधर की उधर नहीं होती ।
बात वो पुरख़तर नहीं होती ।
रहनुमा की करे तरफ़दारी,
छप गई , पर ख़बर नहीं होती ।
रोज़ मैं जार – जार रोता हूँ,
आँख ये फिर भी तर नहीं होती ।
जिसमें एहसास हो मुहब़्ब़त का,
बात वो बेअसर नहीं होती ।
और सब हो रहा है मंदिर में,
एक पूजा ही भर नहीं होती ।
—- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।