ग़ज़ल
फल रही है अजाब की दुनिया ।
सूखती है सवाब की दुनिया ।
कोई काँटा उन्हें नहीं चुभता,
जी रहे जो बनाब की दुनिया ।
आब में भी है एक सेहरा-सा,
और सेहरे में आब की दुनिया ।
जबकि दिल में भरा अँधेरा है,
क्यों है चेहरों पै ताब की दुनिया ?
शर्म लगती है सिर्फ़ बूढ़ों को,
बेहया है शबाब की दुनिया ।
चंद हाथों में कैद-सी लगती,
आज के इंतख़ाब की दुनिया ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।